श्री जय प्रकाश पाण्डेय
“सवाल एक – जबाब अनेक1 – 1”
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का एक प्रश्न के विभिन्न लेखकों के द्वारा दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु तो अवश्य ही खोल देंगे। तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।
वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है।ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में ______
तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न और उसके अनेक उत्तर। प्रस्तुत है पहला उत्तर भोपाल से वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन की ओर से –
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
भोपाल से वरिष्ठ व्यंग्यकार शान्ति लाल जैन ___
आज के संदर्भ में, लेखक, खास तौर पर व्यंग्य लेखक समाज के घोड़े की आँख या लगाम से आगे की स्थिति में है। वो घोड़े की लात हो गया है। वो लत्ती झाड़ रहा है, तबियत से झाड़ रहा है। मगर, कमाल ये कि खानेवालों को मार महसूस ही नहीं हो रही। या तो लात खानेवालों को इस बात का इल्म ही नहीं है या लात की मार उन पर बेअसर हो चुकी। दरअसल, वे ‘लात प्रूफ’ हो गये हैं। यहाँ तक तो फिर भी ठीक भी था मगर जिन नायकों-जननायकों पर समाज के घोड़े को दिशा और गति देने का दायित्व था, और है, वे लतियाये जाने पर खुश हैं। लात खाकर जिनकी आह निकलनी चाहिए थी, वे तो उसे एंजॉय करने में लग गए हैं।
एक पुरानी फिल्म है ‘उम्रकैद’, इसमें जितेंद्र ने एक किरदार निभाया है जो हर रात जब तक अपने दस-बीस हमक़ैदियों से लात घूसों की मार नहीं खा लेता, तब तक उसे चैन की नींद नहीं आती। कमोवेश हमारा समाज इस स्थिति में आ ही गया है। प्रख्यात व्यंग्यकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी कहते हैं जिस भयावहता से हमें डरना चाहिए हम उसे एंजॉय कर रहे हैं। आज जब घोड़े की आँख या लात का जिक्र आया तो मुझे याद आया कि जिस मार के दर्द को मनुष्य समाज के रूप में हमें महसूस करना चाहिए, नीति नियंताओं के दिये जा रहे नुकसान से हमें डरना चाहिए, समझाया ये जा रहा कि हम उस डर को एंजॉय करें। ऐसे दौर में लेखक आँख और लगाम का काम कर तो सकता है, करता भी है मगर वो प्रभावी नहीं हो पाता।
लेकिन वो लिखना बंद नहीं कर सकता क्योंकि यही बच रहेगा। जब स्थितियां गिरावट के अपने चरम बिंदु पर पहुँचती हैं, वे लेखक की ओर हरसरत भरी निगाह से देखतीं हैं। तब लेखक ही समाज के घोड़े को सही दिशा दिखा पाता है। वो आँख, नाक, कान, लात, लगाम जैसा कुछ हो पाये न हो पाये, मशाल तो हो ही जाता है।
हम व्यंग्य से इतर लेखन की बात करें तो लगभग सारे बड़े राजनेता मूलत: लेखक रहे हैं। महाभारत और रामायण जैसे ग्रन्थ भी सत्ता संघर्ष के इर्द गिर्द बुने गये हैं। समकालीन भारत में नेहरु, गाँधी, डॉ राधाकृष्णन, राजगोपालाचारी आदि अनेक राजनेता रहे हैं जिनकी किताबों ने भारत की राजनीति को नई दिशा और दशा प्रदान की। अज्ञेय और महर्षि अरविन्द जैसे स्वतंत्रता आन्दोलन के क्रांतिकारी नेता बाद में पूर्णकालिक लेखन या अध्यात्म की ओर मुड़ गए लेकिन, उनकी राजनैतिक चेतना ने उस दौर में आँख का काम तो किया ही। वर्तमान राजनीतिक दौर में प्रज्ञावान लेखकों का न होना गिरावट के मूल कारणों में से एक है। एक ऐसा बड़ा नेता आज नहीं है जो मानविकी विषयों पर गहन अध्ययन करके समाज को कालजयी कृति दे सके। ये राजनेताओं के झूठे सच्चे संस्मरणों से भरी आत्मकथाओं के लिखे जाने या लिखवाये जाने का दौर है। ये अन्फाउंडेड बेसलेस बायोपिक का दौर है।
ऐसा नहीं है कि वर्तमान दौर में अच्छी किताबें नहीं लिखीं जा रहीं या अच्छा साहित्य नहीं रचा जा रहा। दिक्कत ये कि वो समाज के घोड़े की न तो आँख बन पा रहा है न ही लगाम। और सच तो ये है कि अधिकांश लेखक समाज को दिशा देने या दशा बदल देने के हेतु से लिख भी नहीं रहे। उनका लक्ष्य बेस्ट सेलर बुक्स लिखना रह गया। हम पाते हैं कि बड़े पैमाने पर बेस्ट सेलर किताबों के लेखक, खासकर अंग्रेजी लेखक, सेक्स का तड़का लगाकर उपन्यास लिख रहे हैं। उनकी किताबें अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी तर्जुमे में भी बिक रही हैं। खोटे सिक्कों ने अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर दिया है। मगर, अब भी मु_ी भर लोग हैं जो एक ईमानदार प्रतिबद्ध लेखन से समाज को देख भी रहे हैं और दिखा भी रहे हैं। आप इसे घोड़े की आँख कह सकते हैं। वे लेखन की लगाम से गति पर नियंत्रण भी कर सकेंगे और दिशा भी दे सकेंगे। मगर इसमें वक्त लगेगा।
बहरहाल, ये लतियाए जाने को एन्जॉय करने का समय है।
- श्री शांतिलाल जैन
बहुत शानदार यथार्थ चित्रण