श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक एवं सटीक व्यंग्य “आँसूओं की भी एक फितरत होती है”। इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल जैन जी से ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। )
☆☆ आँसूओं की भी एक फितरत होती है ☆☆
कुदरत हैरान थी. इतना पानी बरसाया, बांध भरा भी, मगर लबालब नहीं हो पाया. हार मानने को ही थी कुदरत कि कचरू पिता मांगीलाल निवासी ग्राम चिखल्दा की आँख से एक आँसू छलका, सरोवर में गिरा और झलक गया बांध. विकास के लिये तैयार – चारों और पानी ही पानी. बैकवाटर है श्रीमान. एक चुल्लू पीकर तो देखिये. मीठा लग रहा है ना ! आँसूओं की एक फितरत होती है, जब इंसान अपने स्वयं के पीता है तो वे खारे लगते हैं, जब दूसरों के पीता है तो फीके लगते हैं, जब दूसरों के एंजॉय करता है तो मीठे लगते हैं. विकास जिनके घरों का बंधुआ है – मीठे आंसुओं की उनकी प्यास बुझती नहीं.
तो आईये श्रीमान, दिलकश नज़ारा है. जहाँ गाँव थे वहाँ पानी ही पानी है. वाटर स्पोर्ट्स के लिये फेसिनेटिंग डेस्टिनेशन. एक्वाजॉगिंग, वाटर एरोबिक्स, स्कीईंग, कयाकिंग, केनोइंग या फिर रिवर राफ्टिंग हो जाये. क्या कहा आपने – राफ्टिंग कैसे करते हैं ? कमाल करते हैं आप. कभी बाढ़ में डोंगियों पर जिंदगी बचाने का संघर्ष करते मज़लूम नहीं देखे आपने ? कुछ ऐसी ही डोंगियों पर खाये-पिये अघाये लोग रोमांच के लिये जब बहते हैं तो वे बहते नहीं हैं, राफ्टिंग करते हैं. उनके पीछे–पीछे चलती है लाइफ सेविंग बोट. आईये, उन खूबसूरत तितलियों को उड़ते हुये एंजॉय कीजिये जो थैले में से मुक्त कर दी गईं हैं. ये सवाल बेमानी है वे किसने कैद की थीं और क्यों? आईये, जंगल सफारी एंजॉय कीजिये. अब ये आदिवासी मुक्त क्षेत्र है. झोपड़े थे उनके, मिट्टी के चूल्हे, हंडा, थाली, कड़छी, चटाई, मुर्गा, बकरी, छोटी सी ही सही पूरी एक दुनिया, जो अब डूब गई है. बस एक जिंदगी बची थी जिसे लेकर वे मजदूरी करने शहरों की ओर निकल गये हैं. मिलेंगे आपको, शहर के लेबर चौक पर.
यहाँ से देखिये, एक सौ चालीस मीटर ऊपर से, जहां तक नज़र जायेगी, पानी ही पानी दिखेगा आपको. डूबने को तो गाँव के गाँव डूब गये हैं मगर चुल्लू भर पानी में कोई नहीं डूबा. डूबेगा भी नहीं. जो दूसरों को डुबोने के प्लान्स पर काम करते हैं वे चुल्लू भर पानी के पास भी नहीं फटकते हैं. बोतल में कैद करके साथ लिए चलते हैं, लीटर भर. वाटर ऑफ कार्पोरेट, वाटर फॉर कार्पोरेट. पूरी नदी उनकी कैद में. विकास की अट्टालिकाओं के निर्माण में पानी आँख का लगता है श्रीमान और जिनकी ये अट्टालिकायेँ हैं उनकी आँखों में बचा नहीं, सो कचरू, दत्तू, मोहन, बेनीबाई, कमलाबाई या मानक काका की आँखों से छलकवा लेते हैं. कुदरत नदी में पानी लाती है, वे मज़लूमों की आँख में लाते हैं. मीठे आँसू पीने का चस्का जो है उनको. बहरहाल, तब भी बद्दुआएँ देना कचरुओं की तासीर में नहीं है, एक आँसू ढलका कर जी हल्का कर लेते हैं, फिर निकल जाते है खंडवा, इंदौर, भोपाल की ओर. मीठे आंसुओं के चस्केबाज जीने नहीं देते, जिजीविषा मरने नहीं देती. जिजीविषा कुदरत को परास्त नहीं कर पाती मगर वो उसे हैरान तो कर ही देती है. कुदरत हैरान थी. कुदरत हैरान है.
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