डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
(आज प्रस्तुत है डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी द्वारा रचित एक विचारणीय, सार्थक एवं सटीक व्यंग्य “फोकट की कमाई”। डॉ विजय तिवारी जी ने फ़ोकट की कमाई से सम्बंधित सामाजिक बुराई के पीछे निहित मनोवृत्ति तथा मजबूरी पर विस्तृत चर्चा की है। हम भविष्य में आपसे ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा करते हैं। )
☆ फोकट की कमाई ☆
कोरी बातों से पेट नहीं भरता। पेट की आग बुझाने के लिए हाथ पैर भी चलाने पड़ते हैं। हमें इसका भी भान होना चाहिए कि पैर पेट की ओर, पेट के लिए ही मुड़ते हैं। पर, दीनू को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। मंदिर के बाहर बैठे बैठे ही जब भक्तजन भरपूर भोजन, फल-फूल, कपड़े और पैसे दे जाते हैं, तो हाथ पैर क्यों चलाए जाएँ। बड़ी अजीब बात है ग्रेजुएट दीनू की, जो पढ़-लिखकर भी भिखारी बना बैठा है। किसी ने बताया कि वह दूर दराज गाँव का रहने वाला है। प्रतिदिन घर से वह अच्छे कपड़े पहनकर निकलता है। मंदिर से दो-तीन सौ मीटर पहले अपने परिचित के घर बाईक रखकर भिखारी वाली ड्रेस पहनता है और पैदल चलकर मंदिर-पथ पर बने अपने ठीहे पर आसन जमा लेता है। महीने भर की कमाई से उसका और उसके परिवार का भरण-पोषण आसानी से हो जाता है। साथ ही वह कुछ पैसे भी बचा लेता है।
गाँव के मित्रों से दीनू अक्सर कहा करता है कि मैंने बेकार ही 10-15 वर्ष पढ़ाई में बर्बाद कर दिए। जब बिना पढ़े-लिखे ही, बिना किसी लागत या आवेदन के बैठे-बैठे रोजी-रोटी का जुगाड़ हो जाता है, तब मेहनत और माथापच्ची क्यों की जाए?
आजकल कुछ रईस और दयालु किस्म के लोगों की भी बाढ़ सी आ गई है। वे अपनी अतिरिक्त कमाई के कुछ हिस्से को हम जैसे लोगों में बाँट कर अपनी वाहवाही लूटते रहते हैं। अखबारों में उनके साथ-साथ हम लोगों की भी फोटो छप जाती है। अखबार उनके नाम और उनके द्वारा की गई सेवाओं का उल्लेख तो करते हैं, लेकिन क्या मजाल कि कोई अखबार वाला या विज्ञप्तिवीर कभी हम लोगों की पीड़ा, विचार अथवा हमारे नामों का उल्लेख करे। कुछ लोग आयकर में बचत के लिए तरह-तरह के दान, गरीबों की सहायता, एन.जी.ओ. आदि का भी सहारा लेते हैं। अनेक बड़े लोग संस्थाएँ, संस्थान अथवा ऐसे ही कामों से अपना काला धन सफेद करते रहते हैं और इन सब के पैसों से ऐश करना हमारे नसीब में लिखा है। हम लोग साल में दो-चार ऐसे कार्यक्रम करने वालों की पूरी जानकारी रखते हैं। हमारी मासूमियत, हमारे परिवेश एवं हमारे छद्म मेकअप से भले व कृपालु लोगों के ठगे जाने का क्रम बदस्तूर चला आ रहा है। सरकारी उपक्रम एवं सामाजिक संस्थाएँ भी गरीब किस्म के लोगों, भिखारियों अथवा जरूरतमंदों को सहायता पहुँचाने में पीछे नहीं हटतीं।
राष्ट्रीय स्तर पर हमारे उन्नयन हेतु काफी समय से प्रयास होते आ रहे हैं फिर भी हमारे समाज में कमी की बजाय इजाफा ही हो रहा है। यह सरकार एवं विद्वानों के लिए शोध का विषय हो सकता है, मगर मेरे अनुसार सीधी सी बात यही है कि बिना लागत, बिना मेहनत और बिना हाथ-पैर चलाए ऐसा धंधा या व्यवसाय कोई दूसरा नहीं है। मुझ जैसी सोच वाले इंसानों के लिए इससे अच्छा रोजगार और कुछ हो ही नहीं सकता। \
अब आप कहेंगे कि एक पढ़े लिखे इंसान की सोच ऐसी कैसे हो सकती है? तब मैं आपको समझाना चाहता हूँ कि आज के जमाने में पैसे कमाने के कोई निश्चित मानदंड तो हैं नहीं, बस आपको पैसे कमाने के तरीके आने चाहिए। आज जो चाय चौराहे पर पाँच रुपये में मिलती है, चाय स्क्वेयर में पच्चीस से पचास रुपये और फाइव स्टार होटल में दो सौ की मिलती है, बस आपको चाय बेचने का तरीका आना चाहिए। कहते हैं न कि बेचने की कला हो तो गंजे को भी कंघी बेची जा सकती है। इस तरह कमाई करने वाले कई तरीके और रास्ते लोग निकाल ही लेते हैं। फोकट की कमाई वाले धंधों में इजाफे के भी यही कारण हैं। बदलते समय में कभी चरित्र का, कभी शक्ति का, कभी शिक्षा का, कभी पैसे का मूल्य श्रेष्ठ रहा है, परन्तु अब इनमें से कुछ भी बड़ा नहीं रह गया। आजकल लच्छेदार बातें, बाह्याडंबर या विश्वास दिलाने का षड्यंत्र ही सबसे कारगर है। झूठ को सच, पीतल को सोना एवं घटिया को उत्कृष्ट बताने की कला आपको धनवान से और धनवान बना देती है। विश्वासघात, नकली का असली और झूठ की पराकाष्ठा ने ही हमारी सामाजिक मान्यताओं को आज गड्डमगड्ड कर के रख दिया है।
बुद्धिजीवी अपना सर पटकता है और चालाक बाजी मार ले जाता है। चोर, बदमाश, आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों से आम आदमी आतंकित रहता है। इनके समूह निरंकुश हो सारे अनैतिक कार्य करते हैं। चोरी, डकैती, लूटपाट, हत्याएँ, वेश्यावृत्ति, भिक्षावृत्ति इनकी अकूत आय के स्रोत हैं।
यहाँ यह बात प्रमुखता से कही जा सकती है कि भिक्षावृत्ति हेतु बच्चे-बच्चियों सहित हर उम्र के व्यक्तियों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाता है। इन पर और इनकी आय पर निगरानी रखी जाती है। एकल एवं गिरोह के रूप में कार्य करने वाले ये लोग आधुनिक तकनीकि से परिपूर्ण होते हैं और इनके मुखिया दबंग तथा पहुँच वाले डॉनों से कम नहीं होते।
बात फिर वहीं अटक जाती है कि सहयोग एवं चौतरफा मदद के बावजूद भिक्षावृत्ति जैसी प्रवृत्तियाँ घटने के बजाय बढ़ क्यों रही हैं, तो यह कहना ही उचित होगा कि कपड़े, कंबल, पैसे और भोजन इसका समाधान नहीं है। समाधान तो तब होगा जब इनकी सोच बदलेगी। ये यथोचित रोजगार से जुड़ेंगे और पूरा समाज इन्हें अपनाएगा।
बावजूद इन सबके कभी-कभी लगता है कि फोकट की कमाई वाले धंधों में लगे लोग ही अधिक चतुर हैं और यही कारण है कि आज भी इन चतुर कोटि के अनुगामी हमारे इर्द-गिर्द बहुतायत में देखे जा सकते हैं। मुझे भी अब भिखारी वाले धंधे की ओर लोगों का रुझान बढ़ता प्रतीत होने लगा है। वैसे कोई खास बुराई न होने के कारण इसे आजमाया जा सकता है।
© विजय तिवारी “किसलय”, जबलपुर