श्री कमलेश भारतीय
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण ☆ राजी सेठ : बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ है बाकी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
राजी सेठ जिनसे बहुत कुछ सीखा और जाना व समझा। सन् 1975 फरवरी माह की बात है। मेरा चयन केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा अहिंदी भाषी लेखकों के लिए लगाये जाने वाले लेखन शिविर में हुआ था और यह शिविर अहमदाबाद में गुजरात विश्विद्यालय में होने जा रहा था। मैं उस समय मात्र तेईस वर्ष का था और छोटे से कस्बे नवांशहर का निवासी। इससे पहले कभी इतनी दूरी की रेल यात्रा नहीं की थी। हां, डाॅ नरेंद्र कोहली से परिचय था और वे दिल्ली रहते थे। बस। उन्हीं के पास पहुंचा और उन्होंने पूछा कि क्या अपनी सीट आरक्षित करवाई है? मैं कहां जानता था इस बारे में? बहुत डांटा मुझे और रेल पर बिठाने छोटे से बेटे को गोदी उठाये खुद गये मेरे साथ। भारतीय रेल का वही दृश्य जो सबने कभी न कभी देखा होगा सामने था। गाड़ी खोजने, प्लेटफॉर्म पर पहुंच कर सीट पाने की मारामारी तक डाॅ नरेंद्र कोहली मेरे साथ भागते दौड़ते रहे और आखिर गाड़ी में बिठा कर जब विदा होने लगे तब तक मुझे एक टीन के कनस्तर पर बैठने की जगह मिल पाई थी और इसी पर पूरे चौबीस घंटे बैठ कर अहमदाबाद पहुंचा था दूसरे दिन सबेरे।
लेखन शिविर के पहले दिन पहले सत्र में हमारी प्रिय विधा के अनुसार तीन विधाओं पर छोटे छोटे समूह बनाये गये -कथा, कविता और नाटक। मैंने कथा समूह चुना। फिर छोटा सा मध्यांतर जलपान का आया। चाय और कुछ खाने के लिए प्लेट में लेकर मैं अलग से खड़ा था कि दो महिलाएं मेरी ओर बढ़ती हुई आईं और सामने खड़ी हो गयीं। ऐनक के पीछे से झांकती आंखों में जिज्ञासा में पूछा -कहां से आए हो?
-पंजाब।
-पंजाबी बोलनी आती है?
-क्यों नहीं? पंजाबी पुत्तर हूं तो आती ही है।
-फेर पंजाबी च बोल भरा।
इस तरह हमारा परिचय जिन महिलाओं से हुआ वे राजी सेठ और उनकी छोटी बहन कमलेश सिंह थीं। वे उन दिनों अहमदाबाद में ही रहती थीं। मैंने पूछा -पंजाबी में ही बात क्यों?
-भरावा इत्थे पंजाबी च गल्ल करन लई तरस जाइदा। ऐसलई। यह कहते कहते अपनी प्लेट में से आलू की एक टिक्की मेरी प्लेट में सरका दी थी। मैंने भी बताया कि अच्छा किया क्योंकि कल रात से यहां का खाना नहीं खा रहा क्योंकि यह बिल्कुल उलट स्वाद वाला है। मीठे की जगह नमक और नमक की जगह मीठा डाल रहे हैं।
-अच्छा एह गल्ल ऐ?
-जी।
-फिर ठीक ऐ। दोपहर दी ब्रेक च खाना साडे घरे?
-रोज?
-की गल्ल? मंजूर नहीं?
-होर की चाहिदा?
इस तरह दोपहर का खाना राजी सेठ के घर हुआ मेरा पूरे सातों दिन। पर उन दिनों ही उनकी पहली कहानी ‘क्योंकर’ कहानी में प्रकाशित हुई थी और लेखिका का नाम था-राजेन् सेठ। यह उनका असली नाम था लेकिन उन्हें पुरूष समझ कर जब खत आने लगे तब उन्होंने नाम बनाया राजी सेठ। फिर इसी नाम से अब तक लिखा और हिंदी साहित्य में उन्हें जाना जा रहा है। वे सात दिन और हमारी कथा विधा की कक्षाएं कभी न भूलने वाले दिन रहे। विष्णु प्रभाकर जी हमारे शिक्षक या कहिए मार्गदर्शक थे। राजी सेठ, कमलेश सिंह और मैं तीनों इसी कक्षा में बैठते। मैंने अपनी एक अप्रकाशित कहानी पढ़ी थी-एक ही हमाम में। जो विष्णु प्रभाकर जी को पसंद आई थी। वे उन दिनों साप्ताहिक हिंदुस्तान में कहानियों का चयन करते थे। शाम को जब उनके साथ विश्विद्यालय में घूम रहा था तब विष्णु जी ने कहा कि यदि इसमें थोड़ा बदलाव कर लो तो मैं इसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में ले लूं। दूसरे दिन दोपहर को राजी सेठ को मैंने यह बात बताई तो उन्होंने सुझाव दिया कि इस लोभ में अपनी कहानी न बदल लेना कि एक बड़े साप्ताहिक में आ जायेगी। यदि बदलाव मन से आए तो करना नहीं तो न करना। मैंने रात भर विचार किया और अपनी कहानी को बार बार पढ़ा तब राजी सेठ का सुझाव अच्छा लगा और मैंने विष्णु जी को कहानी में बदलाव करने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। बाद में वह कहानी रमेश बतरा के संपादन में साहित्य निर्झर के कहानी विशेषांक में आई।
जिस दिन चलने का समय आया उस दिन उनकी सीख थी -कमलेश, बहुत सी बातें हमारी होती रहीं लेकिन आज एक सुझाव दे रही हूं, जिन लोगों के साथ बैठकर मन को खुशी और सुकून न मिले, वे कितने भी बड़े हों, उनके बीच मत बैठना। यह सीख, सुझाव मेरे अब तक बहुत काम आ रहा है। चलते चलते एक प्यारी सी डायरी,पैन और एक नयी नकोर शर्ट भी दी। मैं जल्द ही किनारा कर लेता हूं ऐसे लोगों से जिनके बीच बैठकर सुकून न मिल रहा हो। बहुत बड़ी सीख मिली। वे तब चालीस वर्ष की थीं और मेरा व उनका अंतर सत्रह वर्ष का। वे आज 87 की हो गयी हैं और मैं 70 में आ गया लेकिन वह लम्बा संबंध 47 वर्ष से चलता आ रहा है। विभाजन के बाद कुछ समय राजी सेठ के परिवार ने पंजाब के नकोदर में बिताया था। यह भी उन्होंने मुझे बताया था।
फिर राजी सेठ के पति सेठ साहब का तबादला दिल्ली हो गया और वे मालवीय नगर में आकर किराये के बंगले में रहने लगे। सेठ साहब आयकर विभाग में उच्चाधिकारी रहे हैं। मैं रमेश बतरा के दिल्ली आ जाने के बाद से काफी चक्कर दिल्ली के लगाने लगा। मेरे दो ही ठिकाने होते -टाइम्स ऑफ इंडिया में सारिका का ऑफिस और शाम को मालवीय नगर राजी सेठ के घर। वे अपने घर काम करने वाले पहाड़ी युवक दान सिंह को अपने बेटे की तरह ही मान कर रखे हुई थीं और मुझे पहले दिन ही कह दिया था कि कमलेश, दान सिंह को भूल कर भी हमारे घर का छोटा सा काम करने वाला न कहकर पुकारना। उस दान सिंह को राजी सेठ ने न केवल पढ़ाया लिखाया बल्कि वर्धा के महात्मा गांधी विश्विद्यालय में नौकरी भी लगवा दी। हालांकि दान सिंह की पत्नी और दोनों बेटियां आज भी राजी सेठ के साकेत स्थित बनाये बंगले में उनके साथ रहती हैं और दान सिंह भी वर्धा से आता जाता रहता है। दोनों बेटियां राजी सेठ को दादी ही कहती हैं और दान सिंह की पत्नी मुझे भैया पुकारती है। जब ये बच्चियां छोटी थीं तब राजी सेठ शाम के समय इन्हें घुमा लाने को कहतीं और वे भी शाम को घूम कर खुश हो जातीं। मुझे ऐसा लगता है कि ‘धर्मयुग’ में प्रकशित कहानी ‘गलत होता पंचतंत्र’ का नायक दान सिंह ही है। पर कभी कहा नहीं। मन ही मन समझ गया।
फिर राजी सेठ ने उपन्यास ‘तत्सम’ लिखना शुरू किया। उन दिनों जब भी घर गया तब टाइप पन्ने मुझे देकर कहतीं कि इन्हें पढ़ कर बताओ कि कैसे चल रहा है? इस तरह मैंने वह चर्चित उपन्यास टाइप होते ही पढ़ने की खुशी पाई। वे एक एक पंक्ति और एक एक शब्द पर कितना ध्यान देती थीं, यह जाना। जब तक किसी शब्द से संतुष्ट न हो जातीं तब तक काम अटका रहता। यह उपन्यास भी उन्होंने अपनी एक निकट संबंधी के जीवन से बीज रूप में लिया था जिसके पति की असमय मृत्यु हो गयी थी और राजी सेठ ने संदेश दिया है कि यदि हमारे घर की दहलीज किसी आग में जल कर खराब हो जाये तो बदल लेनी चाहिए। ऐसे ही यह जीवन यदि किसी एक घटना से दूभर बन रहा हो तो बदल लेना चाहिए यानी दूसरी शादी, नयी जिंदगी शुरू कर लेने का संदेश दिया है इस उपन्यास में। यानी तत्सम क्यों? वैसे का वैसा जीवन क्यों जीते चले जाओ? इसे बदलो। वे यह भी मानती हैं कि हर स्त्री का आर्थिक आधार होना चाहिए यानी नौकरी लेकिन सोच इससे भी ऊपर होनी चाहिए।
राजी सेठ ने दर्शन शास्त्र में एम ए की है और वे सचमुच दार्शनिक ही हैं। देखने, समझने और व्यवहार में। शांत सा चेहरा और दूसरे का सम्मान करना कोई इनसे सीखे। नंगे पांव खड़े रहकर मेहमान को खाना खिलाना और साहित्य की बातें करते रहना। फोन पर भी लम्बी बातें। दिल्ली आकर उन्हें प्रसिद्ध लेखक अज्ञेय जी का सहयोग व मार्गदर्शन मिला जिससे वे हिदी साहित्य में अपने परिश्रम व लेखन से स्थान बनाने में सफल रहीं। मेरी दो कहानियां भी इनके सहयोग से अज्ञेय जी द्वारा संपादित पत्रिका -‘नया प्रतीक’ पत्रिका में आईं और चर्चित रहीं। मेरे प्रथम कथा संग्रह ‘महक से ऊपर’ के प्रकाशन का सारा श्रेय उनको ही जाता है। मैं तो डाॅ महीप सिंह से संग्रह को प्रकाशन से पहले कभी मिला भी न था लेकिन सब किया राजी सेठ ने। इस तरह मेरे प्रथम कथा संग्रह की प्रेरक भी राजी सेठ ही रहीं। वे अपनी हर पुस्तक प्रकाशक से मुझे भिजवाती रहीं। मैं भी उनको अपनी हर पुस्तक भेजता हूं। उनका बेटा राहुल तब सिर्फ दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था, फिर वह अमेरिका गया। अब दिल्ली में ही मां पापा के साथ आ गया है और बन गया है लेखक राहुल सेठ। राहुल ने अपनी मां राजी सेठ की कहानी ‘तुम भी’ का नाट्य रूपांतर भी किया है और अपनी पुस्तक मां की तरह ही भेजी। सेठ साहब कहा करते हैं कि मैंने ज्यादा से ज्यादा समय राजी को लिखने के लिए दिया, खाना पकाने में समय लगाने से भरसक बचाये रखा क्योंकि वे खाना बनाने से बहुत बड़ा काम कर रही हैं लेखन का। हर स्त्री लेखन नहीं कर सकती और हर लेखिका को सेठ साहब नहीं मिलते। परिवार ने पूरा साथ दिया। छोटी बहन कमलेश सिंह का कहानी संग्रह भी राजी सेठ ने ही प्रकाशित करवाया। मेरी डाॅ इंद्रनाथ मदान वाली इंटरव्यू भी एक पत्रिका शायद ‘साक्षी’ में प्रकाशित की, जिसका वे अपने गुरु डाॅ देवराज के साथ सहसंपादन करती थीं। अपने समय का कैसे सदुपयोग करना है, शब्दों का कैसे चयन करना है, कृति को कैसे धैर्य के साथ संपन्न करना है और जब तक संतुष्टि न हो तब तक उस पर काम करते जाना है यह बिल्कुल करीब से जाना समझा है मैंने। राजी सेठ और उनका परिवार मुझे लघुकथा लेखन के चलते ‘लघुकुमार’ ही पुकारता है। इतनी चिट्ठियां लिख लिख कर मुझे समझाती रहती थीं जिंदगी और साहित्य के बारे में कि काश वे चिट्ठियां संजो कर रखी होतीं तो आज एक पुस्तक आ जाती। कभी कभार पुराने खतों में कोई खत मिल जाता है। बेटी रश्मि के विवाह पर शगुन का लिफाफा मिला तो उनके प्यार से आंखें भर आईं। नये लेखकों को पढ़ना और अपनी ओर से कुछ सलाह देना यह निरंतर जारी रहा। रमेश बतरा के संपादन में साहित्य निर्झर के लिए कहानी मंगवाई थी।
अभी दो साल पहले सपरिवार दिल्ली साकेत स्थित घर गया था तब वे अस्वस्थ जरूर थीं लेकिन वही गर्मजोशी, वही प्यार और वही आशीष। बहू बेटे, सेठ साहब सबको खाने की मेज पर बुलाया और कहा कि देखो, मेरा भरा केशी मिलने आया है। और बड़े लाड चाव से कहा कि मेरा केशी इतना बड़ा लेखक बन गया है। बहू उज्ज्वला से पहली बार ही मुलाकात हुई। चलते चलते एक लालटेन दी जो बिजली से रोशन कर सकती थी लेकिन सोचता हूं कि राजी सेठ सदैव मुझे जीवन, व्यवहार और साहित्य की रोशनी देती आ रही हैं। जब पंजाब सरकार की शिरोमणि साहित्यकार का पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो फोन लगाया और बोलीं कि बस। इसमें क्या, मैं तो लेखिका हूं और रहूंगी। ज्यादा सुनाई भी नहीं देता आजकल। या तो राहुल या फिर दान सिंह की पत्नी ही बताती हैं कि कमलेश भैया हैं फोन पर। तब वे उन्हें कुछ जवाब बताती हैं और इस तरह बातचीत चलती है हमारी। एक बार वे मुझे मन्नू भंडारी से मिलाने भी ले गयी थीं और दैनिक ट्रिब्यून के लिए उनका इंटरव्यू भी करवाया था। इसी तरह चंडीगढ़ आई थीं योजना रावत के कथा संग्रह के विमोचन पर तब गया था पंजाब विश्वविद्यालय में मिलने तब भी अपना इंटरव्यू न करवा कर निर्मला जैन का इंटरव्यू करवाया। अपने प्रचार से सदैव दूर रहीं। दूसरों के बारे में ज्यादा सजग और प्रेमभरी, प्रेममयी रहीं। अब क्या क्या याद करूं और क्या क्या भूलूं? बस। दीर्घायु हों और आशीष बना रहे। स्नेह बना रहे।
© श्री कमलेश भारतीय
पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈