डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य रचना ‘साहित्यिक किसिम के दोस्त’। इस सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – साहित्यिक किसिम के दोस्त ☆
सबेरे सात बजे फोन घर्राता है। आधी नींद में उठाता हूँ।
‘हेलो।’
‘हेलो नमस्कार। पहचाना?’
‘नहीं पहचाना।’
‘हाँ भई, आप भला क्यों पहचानोगे! एक हमीं हैं जो सबेरे सबेरे भगवान की जगह आपका नाम रट रहे हैं।’
‘हें, हें, माफ करें। कृपया इस मधुर वाणी के धारक का नाम बताएं।’
‘मैं धूमकेतु, दिल्ली का छोटा सा कवि। अब याद आया? सन पाँच में लखनऊ के सम्मेलन में मिले थे।’
याद तो नहीं आया,लेकिन शिष्टतावश वाणी में उत्साह भरकर बोला,’अरे, आप हैं? खू़ब याद आया। वाह वाह। कहाँ से बोल रहे हैं?’
‘यहीं ठेठ आपकी नगरी से बोल रहा हूँ।’
‘कैसे पधारना हुआ?’
‘विश्वविद्यालय ने बुलाया था एक कार्यशाला में।’
‘वाह! मेरा फोन नंबर कहाँ से मिला?’
‘अब यह सब छोड़िए। जहाँ चाह वहाँ राह। हमें आपसे मुहब्बत है, इसीलिए हमने हाथ-पाँव मारकर प्राप्त कर लिया।’
‘वाह वाह! क्या बात है!तो फिर?’
‘तो फिर, भई, यहाँ तक आकर आपसे मिले बिना थोड़इ जाएंगे। आपके लिए पलकें बिछाये बैठे हैं।’
मुझे खाँसी आ गयी। गला साफ करके बोला,’कहाँ रुके हैं?’
‘यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में। कमरा नंबर 15 ।’
‘ठीक है। मैं आता हूँ।’
‘ऐसा करें। शाम को कहीं बैठ लेते हैं। शहर के चार छः साहित्यिक मित्रों को बुला लें। परिचय हो जाएगा और चर्चा भी हो जाएगी। एक दो पत्रकारों को भी बुला लें तो और बढ़िया। आकाशवाणी वाले आ जाएं तो सोने में सुहागा। इतनी व्यवस्था कर लें तो मेरा आपके नगर में आना सार्थक हो जाए। मैं शाम छः बजे के बाद आपका इंतजार करूँगा। जैसे ही आप आएंगे, मैं चल पड़ूँगा।’
मैं चिन्ता में पड़ गया। कहा,’ठीक है, मैं कोशिश करता हूँ।’
‘अजी, कोशिश क्या करना! आप फोन कर देंगे तो शहर के सारे साहित्यकार दौड़े आएंगे। आपकी कूवत को जैसे मैं जानता नहीं। आप के लिए क्या मुश्किल है? तो फिर मैं शाम को आपका इंतजार करूँगा।’
‘ठीक है।’
मैंने फोन रखकर पहले अपने संकोची स्वभाव को जी भरकर कोसा, फिर अपने दिमाग़ को दबा दबा कर उसमें से धूमकेतु जी को पैदा करने की कोशिश में लग गया। बड़ी जद्दोजहद के बाद एक झोलाधारी कवि की याद आयी जो लखनऊ सम्मेलन में सब तरफ घूमते और खास लोगों को अपना कविता-संग्रह बाँटते दिखते थे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो भारी से भारी सम्मेलन में भी अपने तक ही कैद रहते हैं—अपनी चर्चा, अपनी प्रशंसा, अपनी कविता। धूमकेतु जी भी पूरी तरह आत्मप्रचार में लगे थे। तभी उनसे संक्षिप्त परिचय हुआ था। फिर दिल्ली के अखबारों में कभी कभी उनकी कविताएँ देखी थीं।
मैं फँस गया था। आयोजन-अभिनन्दन के मामले में मैं बिलकुल फिसड्डी हूँ और शायद इसीलिए अब तक लोगों ने मुझे अभिनन्दन के लायक नहीं समझा।
लेकिन साहित्य के क्षेत्र में संभावनाओं की कमी नहीं है। बहुत से साहित्यकर्मी चन्दन-अभिनन्दन को ही असली साहित्य समझते हैं। इसलिए मैंने एक स्थानीय स्तर के साहित्यकार ज्ञानेन्द्र को इन्तज़ाम का सारा भार सौंप दिया और उन्होंने सहर्ष कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार भी कर लिया। उन्होंने एक सांध्यकालीन अखबार के प्रतिनिधि को भी खानापूरी के लिए पकड़ लिया। मैं निश्चिंत हुआ।
शाम को धूमकेतु जी की सेवा में उपस्थित हुआ तो उन्होंने दोनों बाँहें फैलाकर मुझे भींच लिया। फिर अपना बाहुपाश ढीला करके बोले, ’हमारे प्यार की कशिश देखी? हमने आपको ढूँढ़ ही निकाला। वो जो चाहनेवाले हैं तेरे सनम, तुझे ढूँढ़ ही लेंगे कहीं न कहीं।’
हमने उनके मुहब्बत के जज़्बे की दाद दी, फिर उन्हें कार्यक्रम की तैयारी की रिपोर्ट दी। वे प्रसन्न हुए, बोले, ’स्थानीय लोगों से मेल-मुलाकात न हो तो कहीं जाने का क्या फायदा?’
मैं उन्हें स्कूटर पर लेकर रवाना हुआ। कार्यक्रम-स्थल पर आठ दस भले लोग आ गये थे। हर शहर में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो हर साहित्यिक कार्यक्रम की शोभा होते हैं। कार्यक्रम के आयोजक उन्हें याद करना कभी नहीं भूलते। वे हर कार्यक्रम को संभालने वाले स्तंभ होते हैं। उड़ती हुई सूचना भी उनके लिए पर्याप्त होती है। ऐसे ही तीन चार रत्न इस कार्यक्रम में भी डट गये थे।
कार्यक्रम बढ़िया संपन्न हुआ। ज्ञानेन्द्र ने धूमकेतु जी को कोने में ले जाकर उनका बायोडाटा लिख लिया था। धूमकेतु जी ने मुहल्ला-स्तर से लेकर अपनी सारी उपलब्धियों का विस्तृत ब्यौरा लिखा दिया था। उनको गुलदस्ता भेंट करने के बाद उनका परिचय हुआ और फिर आज की कविता पर उनका वक्तव्य हुआ। फिर जनता की फरमाइश पर उन्होंने अपनी पाँच छः कविताएं सुनायीं जिन पर हमने शिष्टतावश भरपूर दाद दी। फिर कुछ श्रोताओं ने हस्बमामूल उनके कृतित्व के बारे में कुछ सवाल पूछे और इस तरह कार्यक्रम सफलतापूर्वक मुकम्मल हो गया। धूमकेतु जी गदगद थे। विदा होते वक्त एक बार फिर मुझे भींचकर उन्होंने इज़हारे-मुहब्बत किया। जाते वक्त हाथ हिलाकर बोले, ’स्नेह-भाव बनाये रखिएगा।’
पाँच छः माह बाद दिल्ली जाने का सुयोग बना। पहुँचकर मैंने उमंग से धूमकेतु जी को फोन लगाया। उधर से उनकी आवाज़ आयी,’हेलो।’
मैंने कहा,’मैं सूर्यकान्त। जबलपुर वाला।’
वे स्वर में प्रसन्नता भर कर बोले,’अच्छा,अच्छा। कहाँ से बोल रहे हैं?’
मैंने कहा, ’दिल्ली से ही। काम से आया था।’
वे बोले, ’वाह! बहुत बढ़िया! तो कब मिल रहे हैं?’
मैंने कहा, ’जब आप कहें। मैंने तो पहुँचते ही आपको फोन लगाया।’
वे जैसे कुछ उधेड़बुन में लग गये। थोड़ा रुककर बोले,’अभी तो मैं थोड़ा काम से निकल रहा हूँ। आप शाम चार बजे फोन लगाएं। मैं आपको बता दूँगा।’
मेरा उत्साह कुछ फीका पड़ गया। चार बजे फिर फोन लगाया। उधर से धूमकेतु जी की आवाज़ आयी,’हेलो।’
मैंने कहा,’मैं सूर्यकान्त।’
आवाज़ बोली, ’मैं धूमकेतु जी का बेटा बोल रहा हूँ। पिताजी एक साहित्यिक कार्य से अचानक बाहर चले गये हैं।’
मैंने कहा,’लेकिन यह आवाज़ तो धूमकेतु जी की है।’
जवाब मिला,’धूमकेतु जी की नहीं, धूमकेतु जी जैसी है। हम पिता पुत्र की आवाज़ एक जैसी है। कई लोग धोखा खा जाते हैं।’
मैंने पूछा,’कब तक लौटेंगे?
आवाज़ ने पूछा,’आप कब तक रुकेंगे?’
मैंने कहा,’मैं परसों वापस जाऊँगा।’
आवाज़ ने कहा,’वे परसों के बाद ही आ पाएंगे। प्रणाम।’
उधर से फोन रख दिया गया। मैं खासा मायूस हुआ।
जबलपुर वापस पहुँचा कि दूसरे ही दिन धूमकेतु जी का फोन आ गया—‘क्यों भाई साहब! दिल्ली आये और बिना मिले लौट गये? ऐसी भी क्या बेरुखी।’
मैंने कहा,’आपसे मिलना भाग्य में नहीं था, इसीलिए तो आप बाहर चले गये थे।’
वे बोले,’चले गये थे तो आप एकाध दिन हमारी खातिर रुक नहीं सकते थे? कैसी मुहब्बत है आपकी?’
मैंने कहा,’हाँ, लगता है हमारी मुहब्बत में कुछ खोट है।’
वे दुखी स्वर में बोले,’हमने सोचा था कि आपके सम्मान में छोटी मोटी गोष्ठी कर लेते। कुछ आपकी सुनते, कुछ अपनी सुनाते।’
मैंने कहा,’क्या बताऊँ! मुझे खुद अफसोस है।’
वे बोले,’खैर छोड़िए। वादा कीजिए कि अगली बार दिल्ली आएंगे तो मिले बिना वापस नहीं जाएंगे।’
मैंने कहा,’पक्का वादा है,भाई साहब। आपसे मिले बिना नहीं लौटूँगा। आप दुखी न हों।
वे बोले,’चलिए ठीक है। स्नेह बनाये रखें।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈