डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।
कुछ दिनों से कई शहरों में बड़े पैमाने पर सिंथेटिक दूध, नकली पनीर, घी तथा इन्ही नकली दूध से बनी खाद्य सामग्री, छापेमारी में पकड़ी जाने की खबरें रोज अखबार में पढ़ने में आ रही है। यह कविता कुछ माह पूर्व “भोपाल से प्रकाशित कर्मनिष्ठा पत्रिका में छपी है। इसी संदर्भ में आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है कविता “किसे पता था….?”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 10 ☆
☆ किसे पता था….? ☆
कब सोचा था
ऐसा भी कुछ हो जाएगा
बंधी हुई मुट्ठी से
अनायास यूँ सब कुछ खो जाएगा।
कितने जतन, सुरक्षा के पहरे थे
करते वे चौकस हो कर रखवाली
प्रतिपल को मुस्तैद
स्वांस संकेतों पर बंदूक दोनाली,
किसे पता,
कब बिन आहट के
गुपचुप मोती छिन जाएगा
बंधी हुई मुट्ठी से…………..।
खूब सजे संवरे घर में हम खुद पर
ही थे आत्ममुग्ध, खुद पर लट्टू थे
भ्रम में सारी उम्र गुजारी,समझ न पाए
केवल भाड़े के टट्टू थे,
किसे पता,
बिन पाती बिन संदेश
पंखेरू उड़ जाएगा
बंधी हुई मुट्ठी से…………………।
कितना था विश्वास प्रबल कि,
इस मेले में नहीं छले हम जायेंगे
मृगतृष्णाओं को पछाड़ कर,
लौट सुरक्षित,सांझ ढले वापस आएंगे,
किसे पता,
त्रिशंकु सा जीवन भी
ऐसे सम्मुख आएगा
बंधी हुई मुट्ठी से…………।
लौट-लौट आता वापस मन
कितना है अतृप्त बुझ पाती प्यास नहीं
पदचिन्हों के अवलोकन को
किन्तु राह में अब है कहीं उजास नहीं,
किसे पता,
तन्मय मन को, आखिर में
ऐसे भटकाएगा
बंधी हुई मुट्ठी से अनायास यूँ
सब कुछ खो जाएगा।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर, मध्यप्रदेश
मो. 9893266014