श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अक्ल से पैदल”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 50 – अक्ल से पैदल ☆
क्या किया जाए जब सारे अल्पज्ञानी मिलकर अपने -अपने ज्ञान के अंश को संयोजित कर कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हों ?
कभी- कभी तो लगता है, कि इसमें बुराई ही क्या है ?
ये सच है, कार्य किसी के लिए नहीं रुकता, चाहे वो कोई भी क्यों न हो । यही तो खूबी है मनुष्य की, वो जहाँ चाह वहाँ राह की उक्ति को चरितार्थ करते हुए चरैवेति – चरैवेति के पथ पर अग्रसर हो अपने कार्यों को निरन्तर अंजाम देता जा रहा है । इसी कड़ी में यदि मौके पर चौका लगाते हुए लोग भी, गंगा नहा लें तो क्या उन्हें कोई रोक सकता है ? अरे ,रोकें भी क्यों? आखिर जनतंत्र है । भीड़ का जमाना है । जितने हाथ उतने साथ; सभी मिलकर सभाओं की रौनक बनाते हैं । कोई भी सभा हो, वहाँ गाँवों से ट्रालियों में भरकर लोग लाए जाते हैं । उन्हें जिस दल का गमछा मिला उसे लपेटा और बैठ गए; पंडालों में बिछी दरी पर । समय पर चाय नाश्ता व भोजन, बस अब क्या चाहिए ? पूरा परिवार जन बच्चे से ऐसे ही सभी आंदोलनों में शामिल होता रहता है । मजे की बात तो ये की है कि पहले सड़क पर आना खराब समझा जाता था परंतु अब तो सत्याग्रह के नाम पर सड़कों को घेर कर ही आंदोलनकारी अपने आप को गांधी समर्थक मानते हैं ।
धीरे – धीरे ही सही लोग सड़कों पर उतरने को अपना गौरव मानने लगे हैं । चकाजाम तो पहले भी किया जाता रहा है किंतु इक्कीसवीं सदी के सोपान पर चढ़ते हुए हम सड़कों को ही जाम करने लगे हैं । ठीक भी है जब चंद्रमा और मंगलग्रह के वासी होने की इच्छा युवा दिलों में हो तो ऐसा होना लाजमी ही है । अब हम लोग हर चीज का उपयोग करते हैं, तो सड़कों का भी ऐसा ही उपयोग करेंगे । भले ही हमारा बसेरा आसमान में हो किन्तु हड़ताल धरती पर ही करेंगे क्योंकि वो तो हमारी माता है और माँ का साथ कोई कैसे छोड़ सकता है ? कभी- कभी तो लगता है ; ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि सच्चा लोकतंत्र तो गाँवों में बसता है । राजनैतिक या धार्मिक कोई भी आयोजन हो सुनने वाले वही लोग होते हैं, जो एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने की खूबी रखते हों । ये सब देखते हुए वास्तव में लगता है कि लोकतंत्र कैसे भीड़तंत्र में बदल जाता है और हम लोग असहाय होकर देखते रह जाते हैं । लोग बस इधर से उधर तफरी करते हुए घूमते रहते हैं , जहाँ कुछ नया दिखा वहीं की राह पकड़ कर चल देते हैं ।
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम ।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ।।
बस इसी दोहे को अपना गुरु मानकर घर से निकल पड़ो और जहाँ आंदोलन हो रहा हो वहाँ जमकर बैठ जाओ । याद रखो कि पहला कार्य सभी लोग नोटिस करते हैं अतः उसे विशेष रूप से ध्यानपूर्वक करें । जब आपका नाम ऐसे आयोजनों में लिख जाए तो चैन की बंशी बजाते हुए अपनी धूनी रमा लीजिए । यदि उद्बोधनों से आपका नाम छूटने लगे तो समझ लीजिए की आपको अपने ऊपर कार्य करने की जरूरत है । तब पुनः जोर- शोर से कैमरे के सामने आकर हमारी माँगें पूरी करो… का नारा लगाने लगें, भले ही माँग क्या है इसकी जानकारी आपको न हो । क्योंकि प्रश्न पूछने वाले भी प्रायोजित ही होते हैं , ऐसे आयोजनों में उन्हें ही प्रवेश मिलता है जो अक्ल से पैदल होकर वैसे ही प्रश्नों को पूछें जैसे आयोजक चाहता हो ।
सड़क और ग्यारह नंबर की बस का रिश्ता बहुत गहरा होता है । इनके लिए विशेष रूप से फुटपाथ का निर्माण किया जाता है जहाँ ये आराम से अपना एकछत्र राज्य मानते हुए विचरण कर सकते हैं तो बस ; आंनद लीजिए और दूसरों को भी दीजिए । जो हो रहा है होने दीजिए ।
जबलपुर (म.प्र.)© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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