डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक बेहद मजेदार व्यंग्य ‘पापी आत्माओं का दुख‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – पापी आत्माओं का दुख ☆
आजकल नरक में भारी भीड़भाड़ और धक्कमधक्का है। तिल धरने की जगह नहीं है। जहाँ देखें, मर्त्यलोक से आयी आत्माओं की भीड़ ठाठें मार रही है। यमराज परेशान हैं। भीड़ को सँभालना मुश्किल हो रहा है।’ लॉ एण्ड ऑर्डर’ की समस्या हो गयी है। ख़ास वजह यह है कि मर्त्यलोक से आयी हुई पच्चानवे प्रतिशत आत्माएं नरक पहुँच रही हैं। स्वर्ग वाली लाइन में मुश्किल से दो चार लोग खड़े दिखायी देते हैं। नरक की भीड़ रोज़ बढ़ती है। मर्त्यलोक में अब पापी ही ज़्यादा बचे हैं, पुण्यवान उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। मंत्री, अफसर, कर्मचारी, व्यापारी, पंडे, महन्त, सब लाइन में लगे हैं। नरक के कर्मचारी काम बढ़ता देख क्षुब्ध हैं। उनमें असन्तोष फैलने की संभावना बन रही है।
नरक में संख्यावृद्धि का एक कारण यह भी है कि पहले ईमानदार आदमी अन्त तक ईमानदार रहता था। अब ईमानदार का ईमान चार छः साल में डगमगाने लगता है। ईमानदार आदमी की घर में भी इतनी लानत-मलामत होती है कि वह बीच में ‘कन्वर्ट’ हो जाता है। कई पुण्यवान लोग रिटायरमेंट के कगार पर आकर पलटी मार जाते हैं और अन्त में कोई लम्बा हाथ मारकर समाधि-धारण की अवस्था में आ जाते हैं।
न में खड़ी कुछ ऊँचे अफसरों की आत्माएं भारी कष्ट में हैं। उनकी शिकायत है कि उन्हें ऐसे मामूली क्लर्कों और व्यापारियों की आत्माओं के साथ एक ही लाइन में खड़ा कर दिया गया है जिनसे उन्होंने कभी सीधे मुँह बात नहीं की। उनके ख़याल से यह उनकी बेइज्ज़ती है। लेकिन वहाँ उनकी सुनने वाला कोई नहीं। अलबत्ता उनकी बात सुनकर कुछ क्लर्क कह रहे हैं कि ओहदे में वे भले ही कम रहे हों, लेकिन कमाई के मामले में वे अफसरों से कभी पीछे नहीं रहे।
नरक की लाइन में कुछ ऐसी आत्माएं भी हैं जिन्हें ज़िन्दगी भर सदाचारी और स्वर्ग का अधिकारी समझा जाता रहा। उन्हें कुछ आत्माएँ नसीहत दे रही हैं कि ज़रूर कुछ गड़बड़ हुई है `और वे आगे बढ़कर अपने रिकॉर्ड की जाँच करवा लें। लेकिन सब तथाकथित सदाचारी ठंडी आहें भरते, मुँह लटकाये खड़े हैं। कहते हैं, ‘अब रिकॉर्ड देख कर क्या करेंगे?जब महाराज जुधिष्ठिर नरक भोगने से नहीं बचे, तो हमारी क्या हस्ती। जो प्रारब्ध में लिखा है, झेलेंगे।’ उन्हें पता है कि रिकॉर्ड खुलवाने से मामला गड़बड़ हो जाएगा। यहाँ सब की कारगुज़ारियों की पक्की ‘मानिटरिंग’ होती है।
खड़े खड़े ऊबकर अनेक आत्माएँ अलग अलग गोल बनाकर बैठ गयी है और मन बहलाने के लिए गाने बजाने में लग गयी हैं। कहीं से ‘माया महा ठगिनि हम जानी’ की धुन उठ रही है तो कहीं से ‘अरे मन मूरख जनम गँवायो’ की। एक अफसर की आत्मा अलग बैठी दुखी स्वर में गुनगुना रही है—‘सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया।’
नरक का दंडविधान भी शुरू हो गया है। पापियों को अपने किये की सज़ा मिल रही है। यमराज के गण पूरी निष्ठा से अपने काम में लगे हैं।
लेकिन कुछ आत्माएँ इस सबसे तटस्थ, व्याकुल घूम रही हैं। ये कुछ नेता-टाइप आत्माएँ हैं जो किसी बात को लेकर व्यथित हैं। वे जुगाड़ में हैं कि किसी तरह यमराज तक उनकी बात पहुँच जाए और उनसे बात करने का मौका मिल जाए। बड़ी कोशिश के बाद अन्ततः उन्हें सफलता मिल गयी और यमराज तक खबर पहुँच गयी कि पन्द्रह बीस आत्माएँ अपनी ख़ास व्यथा उनके सामने रखना चाहती हैं।
यमराज आत्माओं की बात सुनने को राज़ी हो गये। बारह पन्द्रह दुखी आत्माएँ उनके सामने हाज़िर हुईं। एक आत्मा, जो किसी राजनीतिज्ञ की थी, बोली, ‘प्रभु, हम अपनी व्यथा आपके समक्ष प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित हुए हैं। जैसा कि आपके रिकॉर्ड से स्पष्ट है, हमने ज़िन्दगी भर पाप करके खूब दौलत बटोरी और उसी की सज़ा भोग रहे हैं। लेकिन हमारा हृदय यह देखकर विदीर्ण हुआ जा रहा है कि जिस दौलत के लिए हम पापी बने और नरक की सज़ा पायी, उसी दौलत के बल पर हमारे सपूत ऐश कर रहे हैं और गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। प्रभु, यह कैसा अन्याय है कि जिस दौलत के लिए हमें सज़ा मिली उसी का हमारे वंशधर सुख लूट रहे हैं। हम यह कैसे बर्दाश्त करें?’
एक आत्मा मर्त्यलोक की ओर इशारा करके बोली, ‘देखिए, देखिए, अभी हमें रुख्सत हुए महीना भर भी नहीं हुआ और हमारे बड़े सपूत पेरिस पहुँचकर वहाँ नाइट क्लब में बिराजे हैं। सामने मँहगी दारू का जाम रखा है। और उधर हमारे दूसरे नंबर के सपूत फाइवस्टार होटल में दोस्तों के साथ बोतल खोले बैठे हैं। तीसरा जो है वह कोई ड्रग लेकर अपने बिस्तर पर बेहोश पड़ा है। प्रभु, क्या इसीलिए हमने पाप करके दौलत कमायी थी?’
यमराज ने लाचारी में सिर हिलाया, कहा, ‘हे पापी आत्माओ,हम इसमें क्या कर सकते हैं?आपकी दौलत का अन्ततः यही हश्र होना था। जब आपके वंशज यहाँ आएंगे तब उनका भी खाता देखा जाएगा। उन्हें भी उनके कर्मों का परिणाम भोगना होगा।’
नेताजी बोले, ‘प्रभु, हम एक विशेष निवेदन करने आये हैं। हमारा निवेदन यह है कि चूँकि हमारी सारी दौलत हमारी कमायी है इसलिए उसका ट्रांसफर यहीं एक बैंक बनाकर कर दिया जाए। अब तो मर्त्यलोक में भी आसानी से मनी ट्रांसफर हो जाता है।’
यमराज हँसे,बोले, ‘यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। फिर यहाँ आपकी मुद्रा का कोई उपयोग नहीं है।’
नेताजी बोले, ‘उपयोग भले ही न हो, लेकिन हमारी आँख के सामने तो रहेगी। कम से कम दूसरे उसे उड़ायेंगे तो नहीं।’
यमराज बोले, ‘यदि आपको अपनी दौलत अपने वंशजों को नहीं देनी थी तो उसे किसी ज़रूरतमन्द व्यक्ति या संस्था को दान कर देते।’
नेताजी ने लम्बी आह भरी,बोले, ‘यह मुश्किल था। ज़िन्दगी भर की पाप की कमाई किसी को देने में हमारा कलेजा न फट जाता?’
यमराज बोले, ‘अब धन-संपत्ति को भूल जाइए। सब माया है। अन्त में धन संपत्ति किसी के काम नहीं आती। इतना तो अब आप समझ ही गये होंगे।’
नेताजी और दुखी होकर बोले, ‘हमारे निवेदन को इतनी सरलता से मत टालिए, प्रभु। हम सचमुच बहुत संतप्त हैं। यदि आप हमारे पैसे को यहाँ नहीं मँगवा सकते तो हमारा सुझाव है कि जिस प्रकार सत्यनारायण की कथा का प्रसाद ग्रहण न करने के कारण साधु बानिया की सारी संपत्ति लता-पत्र में बदल गयी थी, उसी तरह हमारी सारी संपत्ति भी लता-पत्र में बदल दें। वह हमारे काम भले ही न आये, कम से कम हमारे सुपुत्र बिगड़ने से बच जाएंगे।’
यमराज हँसकर बोले, ‘हम आपकी बात पर विचार करेंगे। फिलहाल आपकी दंड- प्रक्रिया का दूसरा सत्र शुरू हो गया है। कृपया वहाँ पधारें और अपने पापों का प्रायश्चित करें।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈