(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख – कैद सुरंगो में…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 239 ☆
आलेख – कैद सुरंगो में…
उत्तराखंड में दुर्घटना वश 40 मजदूर सुरंग में कैद होकर रह गए हैं, जिन्हें बाहर निकालने के लिए सारी इंजीनियरिंग लगी हुई है।
हर बरसात में महानगरों में सड़को के किनारे बनाई गई साफ सफाई की सुरंग नुमा विशाल नालियों में कोई न कोई बह जाता है।
बोर वेल की गहरी खुदाई में जब तब खेलते कूदते बच्चो के गिरने फिर उन्हें निकालने की खबरे सुनाई पड़ती हैं।
आपको स्मरण होगा थाईलैंड में थाम लुआंग गुफा की सुरंगों में फंसे खेलते बच्चे और उनका कोच दुर्घटना वश फंस गए थे, जो सकुशल निकाल लिये गये थे.
तब सारी दुनिया ने राहत की सांस ली. हमें एक बार फिर अपनी विरासत पर गर्व हुआ था क्योकि थाइलैंड ने विपदा की इस घड़ी में न केवल भारत के नैतिक समर्थन के लिये आभार व्यक्त किया था वरन कहा था कि बच्चो के कोच का आध्यात्मिक ज्ञान और ध्यान लगाने की क्षमता जिससे उसने अंधेरी गुफा में बच्चो को हिम्मत बढाई, भारत की ही देन है.
अब तो योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल चुकी है और हम अपने पुरखो की साख का इनकैशमेंट जारी रख सकते हैं.
इस तरह की दुर्घटना से यह भी समझ आता है कि जब तक मानवता जिंदा है कट्टर दुश्मन देश भी विपदा के पलो में एक साथ आ जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे बचपन में माँ की डांट के डर से हम बच्चों में एका हो जाता था या वर्तमान परिदृश्य में सारे विपक्षी एक साथ चुनाव लड़ने के मनसूबे बनाते दिखते हैं.
वैसे वे बहुत भाग्यशाली होते हैं जो सुरंगों से बाहर निकाल लिए जाते हैं. वरना हम आप सभी तो किसी न किसी गुफा में भटके हुये कैद ही हैं. कोई धर्म की गुफा में गुमशुदा है. सार्वजनिक धार्मिक प्रतीको और महानायको का अपहरण हो रहा है. छोटी छोटी गुफाओ में भटकती अंधी भीड़ व्यंग्य के इशारे तक समझने को तैयार नही हैं. कोई स्वार्थ की राजनीति की सुरंग में भटका हुआ है. कोई रुपयो के जंगल में उलझा बटोरने में लगा है । तो कोई नाम सम्मान के पहाड़ो में खुदाई करके पता नही क्या पा लेना चाहता है ? महानगरो में हमने अपने चारो ओर झूठी व्यस्तता का एक आवरण बना लिया है और स्वनिर्मित इस कृत्रिम गुफा में खुद को कैद कर लिया है. भारत के मौलिक ग्राम्य अंचल में भी संतोष की जगह हर ओर प्रतिस्पर्धा, और कुछ और पाने की होड़ सी लगी दिखती है, जिसके लिये मजदूरो, किसानो ने स्वयं को राजनेताओ के वादो, आश्वासनो, वोट की राजनीति की सुरंगों में समेट कर अपने स्व को गुमा दिया है.
बच्चो को हम इतना प्रतिस्पर्धी प्रतियोगी वातावरण दे रहे हैं कि वे कथित नालेज वर्ल्ड में ऐसे गुम हैं कि माता पिता तक से बहुत दूर चले गये हैं. हम प्राकृतिक गुफाओ में विचरण का आनंद ही भूल चुके हैं.
मेरी तो यही कामना है कि हम सब को प्रकाश पुंज की ओर जाता स्पष्ट मार्ग मिले, कोई बड़ा बुलडोजर इन संकुचित सुरंगों को तोड़े, कोई हमारा भी मार्ग प्रशस्त कर हमें हमारी अंधेरी सुरंगो से बाहर खींच कर निकाल ले, सब खुली हवा में मुक्त सांस ले सकें.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
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