(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का समसामयिक विषय पर आधारित एक भावप्रवण कविता ‘बसन्त की बात’। इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 96☆
बसन्त की बात
लो हम फिर आ गये
बसन्त की बात करने ,रचना गोष्ठी में
जैसे किसी महिला पत्रिका का
विवाह विशेषांक हों , बुक स्टाल पर
ये और बात है कि
बसन्त सा बसन्त ही नही आता अब
अब तक
बसन्त बौराया तो है , पर वैसे ही
जैसे ख़ुशहाली आती है गांवो में
जब तब कभी जभी
हर बार
जब जब
निकलते हैं हम
लांग ड्राइव पर शहर से बाहर
मेरा बेटा खुशियां मनाता है
मेरा अंतस भी भीग जाता है
और मेरा मन होता है एक नया गीत लिखने का
मौसम के बदलते मिजाज का अहसास
हमारी बसन्त से जुड़ी खुशियां बहुगुणित कर देता है
किश्त दर किश्त मिल रही हैं हमें
बसन्त की सौगात
क्योकि बसंत वैसे ही बार बार प्रारंभ होने को ही होता है
कि फिर फिर किसी आंदोलन
की घटा घेर लेती है बसन्त को
बसन्त किसी कानून में उलझ कर
अटका रह जाता है
मुझे लगता है
अब किसान भी
नही करते
बरसात या बसन्त का इंतजार उस व्यग्र तन्मयता से
क्योंकि अब वे सींचतें है खेत , पंप से
और बढ़ा लेते हैं लौकी
आक्सीटोन के इंजेक्शन से
देश हमारा बहुत विशाल है
कहीं बाढ़ ,तो कहीं बरसात बिन
हाल बेहाल हैं
जो भी हो
पर
अब भी
पहली बरसात से
भीगी मिट्टी की सोंधी गंध,
और
बसन्त के पुष्पों से
प्रेमी मन में उमड़ा हुलास
और झरनो का कलकल नाद
उतना ही प्राकृतिक और शाश्वत है
जितना कालिदास के मेघदूत की रचना के समय था
और इसलिये तय है कि अगले बरस फिर
होगी रचना गोष्ठी
और हम फिर बैठेंगे
इसी तरह
नई रचनाओ के साथ .
© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈