श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “जनता जनार्दन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 57 – जनता जनार्दन… ☆
एक हाथ से लेना दूसरे हाथ से देना , ये तो अनादिकाल से चला आ रहा। आप यदि किसी को कुछ नहीं देते हैं तो भी वो अपनी योग्यता अनुरूप हासिल कर ही लेगा, तो क्यों न बहती गंगा में हाथ धोने के साथ -साथ स्नान भी कर लिया जाए। वो कहते हैं न मन चंगा तो कठौती में गंगा। ये गंगा भी श्रीहरि के चरणों से निकलकर, ब्रह्मा जी के कमण्डल तक जा पहुँचीं , फिर वहाँ से निकलकर भोले नाथ की जटा में समा गयीं। अब भगीरथ को तो अपना कुल तारने के लिए गंगा जल की ही आवश्यकता थी। सो शिव की जटाओं से निकलकर भगीरथ के पीछे- पीछे वे गंगोत्री तक जा पहुँची और अलकनंदा से बहते हुए हरिद्वार, प्रयागराज , काशी से पटना (बिहार), झारखंड,,पश्चिम बंगाल होती हुई हिंद महासागर में समाहित हो गयीं।
ये सब कुछ केवल नदियों के साथ होता है , ऐसा नहीं है , हम सभी इसी तरह अपने को गतिमान बनाए हुए ,ये बात अलग है कि हमारा कर्म क्षेत्र सीमित है , हम स्वयं को तारने में ही सारा जीवन लगा देते हैं। कहते यही हैं कि तेरा तुझको अर्पण पर राम कहानी कुछ और ही होती है। आजकल तो जिस दल की हवा चल पड़ी समझो सारे लोग उसी में जाकर समाहित होने का ढोंग करने लगते हैं। ये हवा प्रायोजित होती है ,इसके मार्ग का चयन आयोजक करते हैं और प्रायोजकों को ढेर सारे धन के साथ पद लाभ भी देने का वादा करते हैं। फिल्मी तर्ज पर इसमें प्रोड्यूसर व कहानी लेखक का भी महत्वपूर्ण रोल होता है। मजे की बात तो ये की दोनों में जनता ही जनार्दन होती है। चाहे बॉक्स ऑफिस में सौ करोड़ की कमाई का आँकलन हो या पोलिंग बूथ पर मतदाताओं की भीड़। सभी किसी न किसी के भाग्य लिखने का माद्दा रखते हैं।
मिशन 2021 से लेकर 2024 तक चारों ओर अपना ही डंका बजता रहना चाहिए तभी तो आगे की राह सरल होगी। वैसे बाधा आने पर सुंदर से प्रपात भी बनाए जा सकते हैं। कृत्रिम झीलों का निर्माण तो बाँध बनाने के दौरान हो ही जाता है। कितनी साम्यता है प्रकृति के कण – कण में सजीव, निर्जीव , जीव -जंतु, पशुपक्षी व मानव सभी इसी राह के अनुयायी बन ,अनवरत कर्मरत हैं।
छाया सक्सेना प्रभु