श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य “जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 19 ☆
☆ व्यंग्य – जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा ☆
यह जम्बूद्वीपे भारतखंडे आर्यावर्ते देशांतर्गते कल्याणकारी राज्य के ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ वाली व्यवस्था में बदल जाने की वृहद कथा का अंश है. वैसे तो जंबूद्वीप हजारों वर्ष पुराना राष्ट्र हुआ करता था, परंतु ताज़ा चेतना ईसा के उन्नीस सौ पचास वर्ष बाद आई थी. तब से चार दशक तक व्यवस्था अर्थनीति की बीचवाली राह पर चलती रही, न ज्यादा दांये न ज्यादा बांये. फिर राष्ट्र दांयी ओर मोड़ दिया गया, लगे हाथों प्रजाजन को हिन्दी में समझा दिया गया कि जन-उपयोगी सेवाएँ व्यापार का हिस्सा है और व्यापार करना सरकार का काम नहीं है. प्रजाजनों को अब आत्मनिर्भर हो जाना चाहिये, आगे से उन्हें आधारभूत सुविधाओं के लिए भी शासन के भरोसे नहीं रहना चाहिये.
इसका असर हुआ. बिजली पानी जैसी जरूरतों के लिये भी प्रजाजन शासक वर्ग पर निर्भर नहीं रहे. वे अपने लिये बोरवेल खुदवा लेते, वाटर प्यूरिफायर लगवा लेते, शासन के लिये परेशानी खड़ी नहीं करते थे. बिजली के लिये उन्होने इनवर्टर खरीद रखे थे, बहुतेरों ने डीजल जेनसेट भी लगवा लिये थे. निर्धन प्रजा पानी के टैंकर पर टूट पड़ती, ग्रामीण प्रजा चार किलोमीटर दूर से भर लाती. ढिबरी जलाकर रह लेती मगर शासन के इस निर्णय का सहर्ष अनुपालन करती कि एक सुखी और सम्पन्न राष्ट्र की तमाम जन-सुविधायें निजी हाथों में होनी चाहिये. इसकी कीमतें निजी बाज़ार तय करेगा, शासक इसके लिये दायी नहीं होगा. गाय एक पूजनीय चौपाया हुआ करती थी, प्रजाजन उसी की मानिंद सिर हिला देते. उनके रंभाने को शासन अपनी नीतियों का समर्थन मान लेता.
जंबूद्वीप की सड़कें ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ का परफेक्ट एक्जाम्पल थीं. बलशाली लोग महंगी तेज गति की कार से एक नगर से दूसरे नगर जाते. उससे कम हैसियत के लोग आरामदेह वातानुकूलित कोचों से यात्रा करते. शेष हारून मियां की टंडिरा हो चुकी बसों से आते-जाते. ग्रामीण प्रजा भेड़बकरियों सी लदकर टाटा-मैजिक या टेम्पो में भर कर जाती. राज्य परिवहन निगम की व्यवस्था समाप्त कर गई दी थी. यह कथा कहे जाने तक रेल भी निजी हाथों में देने की तैयारी कर ली जा रही थी. किराये से ज्यादा का टोल चुकाना पड़ता. प्रजाजनों को समझा दिया गया था देखो भैया सड़क बनाना शासन का काम नहीं है, पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप मॉडल में बनेगी तो लागत का आठ-दस गुना टोल तो चुकाना पड़ेगा. इस कालखंड के शासकों का मानना था कि रेल-मोटर चलाना राजकाज के काम का हिस्सा नहीं है. जनसंचार के सारे माध्यम भी प्रजाजनों को यही यकीन दिलाते. तो क्या करती गायें, उन्होने इसमें भी सिर हिलाकर सहमति दे दी.
सरकारी स्कूलों में न छत होती, न पंखे, न ब्लैक बोर्ड न चाक, और तो और शिक्षक भी पक्के नहीं होते. अतिथि शिक्षक होते जो अतिथियों की तरह आते. आते आते नहीं भी आते. तो क्या करते प्रजाजन? वे शिक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गये, श्रेष्ठीजन लक़दक़ पाँच सितारा स्कूलों में एजुकेशन दिलवाते, ट्यूशन लगवाते, कोटा भिजवाते, टैबलेट पर बायजूस खरीद लेते. शेष प्रजा बच्चों को मोहल्ले के सेंट भंवरलाल कान्वेंट स्कूल में भर्ती कर देती. जो वहाँ तक भी नहीं जा पाते वे चाय की दुकान पर गिलास धोने की नौकरी कर लेते.
प्रजाजन को इलाज के लिये बीमा करवाना पड़ता. वे शासकीय अस्पताल से विमुख हो चुके थे. कारपोरेट अस्पताल में केशलेस कार्ड लेकर घुसते और बीमित राशि के शून्य हो जाने तक भर्ती रहते. जो अफोर्ड नहीं कर पाते वे नीमहकीमों से या बंगाली बाबाओं से शर्तिया इलाज़ कराते. नीति नियंताओं ने स्वयं को हेल्थ सेक्टर के दायित्व से भी मुक्त कर लिया था.
जम्बूद्वीपवासी पत्र भेजने के लिये डाकघर जैसी चीज को विस्मृत कर चुके थे. वे कोरियर सेवा का उपयोग करते जो महंगी होने के साथ साथ बहुत जवाबदेह भी नहीं होती. लाल डिब्बे शहर में ढूँढे से नहीं मिलते. हर कोरियर कंपनी का अपना रेट होता. सो आप जानों और कंपनी जाने. शासन आपकी चिट्ठी सही जगह पर मामूली कीमत में क्यों पहुंचाये ?
शासन ने जन सुरक्षा क्षेत्र में भी अपने को सिकोड़ लिया था और प्रजाजन को आत्मनिर्भर होने का संदेश दे दिया था जिसका अनुपालन करते हुवे जिम्मेदार नागरिक प्राईवेट सिक्यूरिटी गार्ड रख लेते. पुलिस होती थी मगर जिनका डर दूर करने के लिये उसे बनाया गया वे ही उससे सबसे ज्यादा डरते. सामान्य श्रेणी के नागरिकों को ए स्तर की सुरक्षा नहीं मिल पाती, रसूखदार लोग ज़ेड केटेगरी की सुरक्षा ले उड़ते.
पूर्व चक्रवर्ती सम्राट अशोक के शासन पर जम्बूद्वीप के वर्तमान शासक जितना गर्व करते उसके कल्याणकारी मॉडल से उतनी ही दूरी बनाकर चलते. आवारा शब्द पूंजी के पहले जुड़ा हो तो उसे सम्मान के साथ बरता जाता था. आर्थिक समानता और सामाजिक समरसता बीते युग की अवधारणा हो चली थी. जिस नागरिक की जितनी हैसियत रही वो उतना आत्मनिर्भर होता रहा. जो आत्मनिर्भर हो पाने में असमर्थ रहता वो आत्महत्या कर लेता. शासक को दांयी ओर चलना हो तो तो पीठ पर से बिजली, पानी, लोक परिवहन, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसे बैगेजेस झटककर फेंकने ही पड़ते. कथासार ये कि जम्बूद्वीपे भारतखंडे आर्यावर्ते देशांतर्गते राजाधिराज अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों उपक्रमों को निजी क्षेत्र को सौंप कर कल्याणकारी राज्य होने के दायित्व से मुक्त होने की दिशा में द्रुत गति से चलने लगे. निर्बल निर्धन असहाय विवश नागरिक पीछे छूटते रहे, उनकी शेषकथा फिर कभी.
© शांतिलाल जैन
बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010
9425019837 (M)
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈