प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा एक भावप्रवण कविता “रे मन तू बन मुरली“। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 34 ☆
☆ रे मन तू बन मुरली ☆
रे मन तू बन मुरली के समान
जिसके सुर सुनने को उत्सुक सबके कान
सीधी सरल पोंगरी खाली
सबके चित को सबके हरने वाली
रस से भरी सदा सुखदाई जिसकी मीठी तान
रे मन तू बन मुरली के समान …
जिसकी मधुर सुखद स्वर लहरी
छू जाती हर मन को गहरी
हर पावन प्रसंग को देती रही जो सुख सम्मान
रे मन तू बन मुरली के समान …
जिसमें भरा अकथ आकर्षण
जो हर्षित करता हर जन मन
सबको मोद और अधरों को देती जो मुस्कान
रे मन तू बन मुरली के समान …
लय स्वर पीड प्रीति उपजाते
अनजाने की मीत बनाते
सबको सहसा ही दे जाते बिन मांगे पहचान
रे मन तू बन मुरली के समान …
सुख दुख नित आते जाते हैं
दिन आगे बढ़ते जाते हैं
बीता युग न साथ दे पाता इतना तो तू जान
रे मन तू बन मुरली के समान
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
बहुत ही सुंदर सारगर्भित रचना बधाई
बेहतरीन प्रस्तुति