श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ संजय उवाच # 91 ☆ आओ संवाद करें ☆
प्रातःकालीन भ्रमण पर हूँ। देखता हूँ कि कचरे से बिक्री लायक सामान बीनने वाली एक बुजुर्ग महिला बड़ा सा-थैला लिए चली जा रही है। अंग्रेजी शब्दों के चलन के आज के दौर में इन्हें रैगपिकर कहा जाने लगा है। बूढ़ी अम्मा स्थानीय सरकारी अस्पताल के पास पहुँची कि पीछे से भागता हुआ एक कुत्ता आया और उनके इर्द-गिर्द लोटने लगा। अम्मा बड़े प्यार से उसका सिर सहलाने-थपकाने और फिर समझाने लगीं, ” अभी घर से निकली। कुछ नहीं है पिशवी (थैले) में। पहले कुछ जमा हो जाने दे, फिर खिलाती।” वहीं पास के पत्थर पर बैठ गईं अम्मा और सुनाने लगी अपनी रामकहानी। आश्चर्य! आज्ञाकारी अनुचर की तरह वहीं बैठकर कुत्ता सुनने लगा बूढ़ी अम्मा की बानी। अम्मा ने क्या कहा, श्वानराज ने क्या सुना, यह तो नहीं पता पर इसका कोई महत्व है भी नहीं।
महत्व है तो इस बात का कि जो कुछ अम्मा कह रही थी, प्रतीत हो रहा था कि कुत्ता उसे सुन रहा है। महत्व है संवाद का, महत्व है विरेचन। कहानी सुनते समय ‘हुँकारा’ भरने अर्थात ‘हाँ’ कहने की प्रथा है। कुत्ता निरंतर पूँछ हिला रहा है। कोई सुन रहा है, फिर चाहे वह कोई भी हो लेकिन मेरी बात में किसी की रुचि है, कोई सिर हिला रहा है, यह अनुभूति जगत का सबसे बड़ा मानसिक विरेचन है।
कैसा विरोधाभास है कि घर, आंगन, चौपाल में बैठकर बतियाने वाले आदमी ने मेल, मैसेजिंग, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, व्हाट्सएप, टेलिग्राम जैसे संवाद के अनेक द्रुतगामी प्लेटफॉर्म विकसित तो कर लिए लेकिन ज्यों-ज्यों कम्युनिकेशन प्लेटफॉर्मों से नज़दीकी बढ़ी, प्रत्यक्ष संवाद से दूर होता गया आदमी। अपनी अपनी एक कविता याद आती है,
“खेत/ कुआँ/ दिशा-मैदान/ हाट/ सांझा चूल्हा/ चौपाल/ भीड़ से घिरा/ बतियाता आदमी…, कुरियर/टेलीफोन/ मोबाइल/ फोर जी/ ईमेल/ टि्वटर/ इंस्टाग्राम/ फेसबुक/ व्हाट्सएप/ टेलिग्राम/ अलग-थलग पड़ा/ अकेला आदमी…”
तमाम ई-प्लेटफॉर्मों पर एकालाप सुनाई देता है। मैं, मैं और केवल मैं का होना, मैं, मैं और केवल मैं का रोना… किसी दूसरे का सुख-दुख सुनने का किसी के पास समय नहीं, दूसरे की तकलीफ जानने-समझने की किसी के पास शायद इच्छा भी नहीं। संवाद के अभाव में घटने वाली किसी दुखद घटना के बाद संवाद साधने की हिदायत देने वाली पोस्ट तो लिखी जाएँगी पर लिखने वाले हम खुद भी किसी से अपवादस्वरूप ही संवाद करेंगे। वस्तुत: हर वाद, हर विवाद का समाधान है संवाद। हर उलझन की सुलझन है संवाद। संवाद सेतु है। यात्रा दोनों ओर से हो सकती है। कभी अपनी कही जाय, कभी उसकी सुनी जाय। अपनी एक और रचना की कुछ पंक्तियाँ संक्षेप में बात को स्पष्ट करने में सहायक होंगी,
विवादों की चर्चा में/ युग जमते देखे/ आओ संवाद करें/ युगों को पल में पिघलते देखें/… मेरे तुम्हारे चुप रहने से/ बुढ़ाते रिश्ते देखे/ आओ संवाद करें/ रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें/…
नयी शुरुआत करें, आओ संवाद करें !
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
बहुत खूब अभिव्यक्ति!
सच है संवाद के अभाव में आज मनुष्य में इरीटेशन की भावना भरती जा रही है।जीवन.में संवाद अति आवश्यक है।
संवाद किसी से भी हो पर, होना आवश्यक है अन्यथा मनुष्य को मानसिक रोगी बनते देर नहीं लगती।