सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “शून्य ”। )
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 77 ☆
मैं शून्य में हूँ?
या शून्य मुझमें है?
या मैं ही शून्य हूँ?
बैठी थी जब इस इमारत के भीतर
जो शून्य के आकार की थी,
मैंने कोशिश की उस शून्य में समा जाने की,
और इतनी आसानी से समा गयी,
जैसे वो या तो मेरे लिए बना था
या फिर मैं उसके लिए!
पर ज़रा उठकर आगे बढ़ी ही थी
कि कोई और उस शून्य की गोद में
यूँ जा बैठा, जैसे वो उसके लिए ही बना हो…
नहीं…शायद मैं शून्य में नहीं थी…
हम सब में शून्य है-
तभी तो वो हम सिखाता है
कि नहीं है हमारा अपना वजूद कोई-
आखिर हमें मिट्टी में समां जाना है!
तो फिर हम ही शून्य हुए ना?
हाँ, हम शून्य हैं-
‘गर ज़िंदगी के साथ ख़ुशी से मिल जाते हैं
तो ख़ुशी चारों ओर बारिश सी बरसती है,
और यदि हम ज़िंदगी से तालमेल ही नहीं बिठा पाते
तो नहीं बचती हमारी कोई अहमियत!
© नीलम सक्सेना चंद्रा
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
अति सुन्दर रचना धर्मिता अभिनंदन अभिवादन बधाई आदरणीया श्री