डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘देश के काले सपूतों की कथा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – देश के काले सपूतों की कथा ☆
जब देश के समझदार लोगों के हिसाब से देश की अर्थव्यवस्था नाजुक हालात में पहुँच गयी, भुगतान संतुलन एकदम बरखिलाफ हो गया और हमारे विदेशी महाजन कर्ज़ देने के नाम पर मुँह बनाने लगे, तब हमारी गौरमेंट ने देश के उन सपूतों को याद किया जिनकी कमाई अभी तक काली कमाई कहलाती थी और जिसे बाहर निकलवाने के लिए सरकार कई ‘स्वैच्छिक घोषणा’ योजनाएं लागू कर चुकी थी। इन काले सपूतों से सरकार ने कहा कि अब वक्त आ गया है कि वे मातृभूमि की सेवा को आगे आएँ और अपने तथाकथित काले धन का सफेद निवेश कर देश की तरक्की में अपना अमूल्य योगदान दें। बड़े बड़े उद्योग स्थापित कर देश की गरीबी को दूर करें और बेरोज़गारों को रोज़गार मुहैया कराएं। उनके काले धन को पूरी तरह सफेद समझा जाएगा और उनसे कोई नहीं पूछेगा कि उन्होंने उसे कब, कैसे और कहाँ से कमाया। अगर गौरमेंट ने उनकी शान के खिलाफ कभी कुछ कह दिया हो तो उसे दिल में न रखें।
यह घोषणा होते ही देश के सभी शहरों से तथाकथित काले धन के स्वामियों की टोलियों की टोलियाँ निकल कर सड़कों पर आने लगीं। इनमें मामूली क्लर्कों से लेकर भारी भरकम अधिकारी तक कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे। पुराने खुर्राट भी थे और नये नये रंगरूट भी। सभी का चेहरा मातृभूमि की सेवा के भाव से दपदपा रहा था। देर आयद दुरुस्त आयद। देर से ही सही, गौरमेंट ने उनकी अहमियत को समझा तो। आखिरकार सरकार की समझ में आ गया कि उनके बिना देश आगे नहीं बढ़ सकता।
सभी खास शहरों में ऐसे सपूतों की सभाएं हुईं। जलसे का आलम था। लाउडस्पीकर पर गीत बज रहा था—‘चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है।’
शुरू में सभाओं में कुछ दिक्कत हुई। आला अफसरों ने कहा कि अलग अलग वर्गों की सभाएं अलग अलग होनी चाहिए। भला आला अफसर और मामूली क्लर्क एक ही मंच पर कैसे बैठ सकते हैं?इस पर कुछ क्लर्कों ने छाती ठोक कर कहा कि हैसियत नाप कर देख लो,माल कमाने के मामले में हम अफसरों से कम नहीं हैं। अन्ततः यह झगड़ा अगली सभा के लिए टाल दिया गया और सब जाति-धर्म वाले सारे भेद भुलाकर एक ही मंच पर विराजमान हुए।
मेरे शहर की सभा में सबसे पहले तीरथ प्रसाद जी का अभिनन्दन हुआ जिनके सारे केश काली कमाई बटोरते बटोरते सफेद हो गये थे। तीरथ प्रसाद जी रेत से तेल निकालने के विशेषज्ञ माने जाते थे। उन्होंने कई नौसिखियों को ट्रेनिंग देकर अपने पैरों पर खड़े होने योग्य बनाया था। वे अपने भाषण में बोले, ‘मुझे खुशी है कि सरकार ने हमारी योग्यता और क्षमता को समझा। जब जागे तभी सबेरा। समाज को भी समझना चाहिए कि पैसा उसी के पास आता है जिसमें सामर्थ्य होती है। जब तुलसीदास ने कहा है ‘समरथ को नहिं दोस गुसाईं’ तो हम पर दोष कैसे लगाया जा सकता है?अब वक्त आ गया है कि समाज हमारी कदर करे और हमें वह इज़्ज़त दे जिसके हम हकदार हैं।’
एक वक्ता बोले, ‘समाज आलोचना तो करता है,लेकिन यह नहीं समझता कि काली कमाई क्या चीज़ है। काली कमाई सब धर्मों और जातियों से ऊपर है और सब धर्मों जातियों को एक दूसरे से बाँधती है। हम काली कमाई वाले सब मतभेदों को भुलाकर एक दूसरे को सहयोग देते हैं और मैत्रीभाव रखते हैं। आपने कभी नहीं सुना होगा कि एक काली कमाई वाले ने दूसरे की पोल खोल दी। धर्म और जाति से परे ऐसी एकता का नमूना आपको कहीं नहीं मिलेगा। इसीलिए हमें समाज की नासमझी पर तरस आता है।’
एक और वक्ता बोले, ‘सरकार बैंक खोलकर लोगों की कमाई इकट्ठी करती है ताकि वह देश और समाज के काम आ सके। हम भी अपने स्तर पर वही काम करते हैं। हमारे पास बहुत से लोगों की कमाई इकट्ठी है। सरकार दो नंबर का लेबिल हमारे ऊपर से हटाये तो उसे देश के उत्थान के लिए सामने लायें ‘
एक वक्ता बड़े गुस्से में थे। फुफकार कर बोले, ‘इस काली कमाई के ठप्पे की वजह से हमें कितना पाखंड करना पड़ा। हम हवाई जहाज पर चलने की ताकत रखते हैं लेकिन मजबूरन ट्रेन के सेकंड क्लास स्लीपर में चलना पड़ता है। मर्सिडीज कार खरीदने की क्षमता रखते हुए भी स्कूटर से काम चलाना पड़ता है। महलों में रहने की सामर्थ्य होते हुए भी छोटे से घर में गुज़र करनी पड़ती है। काली कमाई का हौवा दिखाकर हमें चोरों की तरह रहने के लिए मजबूर किया गया। हमें अपना जीवन जिस तरह झूठे अभावों और ओढ़े हुए दुखों में गुज़ारना पड़ा है उसके लिए क्या सरकार भारापाई करेगी? क्या सरकार हमारे उस वक्त को लौटा सकती है?’
कई श्रोता रूमाल से अपनी आँखें पोंछने लगे।
एक वक्ता मंच पर खड़े होते ही माइक पकड़कर रोने लगे। कुछ संयत हुए तो सुबकते हुए बोले, ‘इस सरकारी नीति ने हमारा लाखों का नुकसान किया है। मैंने पकड़े जाने के डर से अपनी तीन बसें अपने एक साले के नाम कर दी थीं। वह साला उन तीनों को हजम कर गया। आजकल बात भी नहीं करता। अब मेरी समझ में आया कि लोग ‘साला’ को गाली की तरह क्यों इस्तेमाल करते हैं। एक और साले ने सात लाख रुपये उधार लिये थे। अब वह भी नट रहा है। कहता है समझो हराम की कमाई हराम में चली गयी। एक साढ़ू के नाम से होटल खोला है, लेकिन हमेशा डर लगा रहता है कि कहीं वह भी बेईमान न हो जाए। मैं इतना परेशान रहता हूँ कि मेरा ब्लडप्रेशर बढ़ गया है। ईमानदारी तो कहीं रही नहीं। हम अपनी गाढ़ी कमाई कहाँ रखें? अब सरकार हमारी कमाई को मान्यता दे रही है। अब एक एक को समझ लूँगा।’
वातावरण बिगड़ते देख तीरथ प्रसाद जी ने लपक कर फिर से माइक थाम लिया। बोले, ‘भाइयो, आज का दिन गिलों शिकवों का नहीं है। आज का दिन तो खुशी और आभार प्रदर्शन का है। आज से हम समाज में गर्व से सिर उठाकर चल सकते हैं। आज हम यहाँ शपथ लें कि हम तन, मन और धन से देश के उत्थान में समर्पित हो जाएंगे। आज इस मंच से हम देश और प्रदेश की सरकारों से अनुरोध करते हैं कि विकास और वित्त के सभी महत्वपूर्ण मामलों में हमारी राय ली जाए। हमारे पास इन विषयों के विशेषज्ञ मौजूद हैं। बस मौका मिलने की देर है।’
इसके बाद सभी ने छाती पर हाथ रखकर शपथ ली कि वे पूरी ईमानदारी से देश की बहबूदी और समृद्धि में लग जाएंगे और तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक हमारा देश विकास के शिखर पर स्थापित न हो जाए।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈