श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य “एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर…..” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 22 ☆
☆ व्यंग्य – एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर ….. ☆
स्वेजनहर में फंसे एवरगिवन जहाज़ के चालक दल के सभी पच्चीस सदस्य भारतीय अवश्य थे मगर वे इंदौरी नहीं थे. होते तो जाम लगने की वजह भी खुद बनते और खुद ही निकाल भी ले जाते. अपन के शहर में ये ट्रेनिंग अलग से नहीं देना पड़ती, आदमी दो-चार बार खजूरी बाज़ार से गुजर भर जाये, बस. एक इंदौरियन विकट जाम में कैसा भी वाहन निकाल सकता है. डिवाईडरों की दो फीट दीवारों पर से एक्टिवा तो वो यूं निकाल जाता है जैसे मौत के कुएँ में करतब दिखा रहा हो. वो ओटलों, दुकानों में से होता हुआ तिरि-भिन्नाट जा सकता है. जब एक्सिलरेटर दबाता है तब जाम में उसके आगे फंसे वाहनों की दीवार ताश के पत्तों सी भरभरा कर ढह जाती हैं. इस वाले काउंट पे जेंडर इक्वलिटी है, मैडम भी स्कूटी ऐसे ई निकाल लेती है.
आईये आपको घुमाकर लाते हैं. ये देखिये, ये अपन की एवरगिवन है, मारुति सियाज़ और ये है अपन की स्वेज़ नहर, खजूरी बाजार इंदौर. इत्ती पतली नहर और इत्ता चौड़ा एवरगिवन!! निकल जाएगी भिया – सीधी आन दो, डिरेवर तरफ काट के, भोत जगा है, सीधी आन दो. अपन की स्वेज़ नहर में अपन की एवरगिवन डेढ़ इंच भी टेढ़ा होना अफोर्ड नहीं कर पाती. हो जाये तो जो जाम लग जाता है उसमें अपन की वाली को टगबोट लगाकर सीधा नहीं करना पड़ता. वो आसपास से गुजरनेवाली आंटियों की गुस्से भरी नज़र से ही सीधी हो जाती है. गुस्सा क्यों न करें श्रीमान ? एक तो चिलचिलाती धूप में एक हाथ मोबाइल कान पर रखने में इंगेज़ है, दूसरे में मटकेवाली कुल्फी का एक टुकड़ा पिघलकर गिरा गिरा जा रहा है, उपर से जेम्स बॉन्ड का नाती हॉर्न पर हॉर्न बजाये जा रहा है. एक टुकड़ा कुल्फी ही तो सुख है – उड़ती धूल, जहरीला धुआँ, कानफोडू हॉर्न, डीजल और पेट्रोल की बदबू के बीच. ‘सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है’ – शहरयार साहब अब इस दुनिया में रहे नहीं वरना अपने इस सवाल का जवाब उन्हें यहीं मिल जाता.
कहते हैं ताईवान के एवरगिवन के नीचे से रेत निकाली गयी तब जाकर वह हिला. अपन के इधर नीचे गड्ढ़े में रेत भरनी पड़ती है तब जाकर एवरगिवन बाहर आ पाती है. मिस्र देश की नहर में दिक्कत ये है कि पानी गहरा होने के कारण दुकान का काउंटर साढ़े छह फीट आगे तक नहीं निकाला नहीं जा सकता. इधर की स्वेज़ में ये सुविधा है. सुविधाएं और भी हैं – सड़क पे ई होता वेल्डिंग, पंक्चर पकाने की सुविधा, भजिये के ठेले और सांड की टहलकदमी, जुगाड़ के वाहन, बच्चों से लदा-फदा स्कूल-ऑटो, एम्बुलेंस, सूट-टाई में गर्दन पर पैंतीस हारों का बोझ लादे शाकिरमियां की घोड़ी पर पसीने से तरबतर बन्ना और राजकमल बैंड के ‘दिल ले गई कुडी पंजाब दी’ पर झूमते बाराती. बताईये पानी वाली नहर में कहाँ ये सुख है.
चलिये अच्छा उधर देखिये, मैजिक पूरा भरे जाने के लिये बीचोंबीच खड़ा है, इस बीच सामने से आता हुआ दूसरा मैजिक रुक गया है, सवारी को अपने घर के सामने ही उतरना है, वो उतर भी गयी है मगर नाराज़ है. उसका मकान पांच मकान पीछे था, मैजिकवाले ने बिरेक देर से मारा. अब पीछे की ओर ज्यादा चलना पड़ेगा अगले को, पूरे तेरह कदम.
आपके यहाँ गाड़ियों के लिये अलग अलग लेन नहीं होती ? नहीं जनाब, ट्रैफिक के मामले में हम शुरू से ही बे-लेन रेते हेंगे. हम लोग जाम से शिकायत नहीं रखते उसे एंजॉय करते हैं. किवाम-चटनी के मीठेपत्ते का मजा ही कनछेदी की दुकान के सामने बाईक आड़ी टिका के चबाने-थूकने में है, अब जाम लगे तो लगे. मेरिन पुलिस टाइप भी कुछ है नहीं यहाँ. जाम से असंपृक्त वो जो दो पुलिसवाले खड़े हैं रात आठ बजे बाद के जाम का इंतज़ाम मुकम्मल कर रहे हैं. एक के हाथ में रसीद कट्टा है और दूसरे के डंडा. जुगलबंदी कारगर.
ऐसे घनघोर माहौल में कोई इंदौरियन ही वाहन सनन निकाल सकता है, फिर वो स्वेज़ में फंसा एवरगिवन ही क्यों न हो, विकट भिया.
© शांतिलाल जैन
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