प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा एक भावप्रवण कविता “कृष्ण कन्हैया“। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 37 ☆ कृष्ण कन्हैया ☆
गोकुल तुम्हें बुला रहा, हे कृष्ण कन्हैया।
वन वन भटक रही हैं, ब्रजभूमि की गैया।
दिन इतने बुरे आये कि, चारा भी नही है।
इनको भी तो देखो जरा, हे धेनु चरैया।
करती हैं याद, देवकी माँ रोज तुम्हारी।
यमुना का तट, और गोपियाँ सारी।
गई सूख धार यमुना की, उजडा है वृन्दावन।
रोती तुम्हारी याद में, नित यशोदा मैया।
रहे गाँव वे, न लोग वे, न नेह भरे मन।
बदले से हैं घर द्वार, सभी खेत, नदी, वन।
जहाँ दूध की नदियाँ थीं, वहाँ अब है वारूणी।
देखो तो अपने देश को, बंशी के बजैया।
जनमन न रहा वैसा, न वैसा है आचरण।
बदला सभी वातावरण, सारा रहन सहन।
भारत तुम्हारे युग का, न भारत है अब कहीं।
हर ओर प्रदूषण की लहर आई कन्हैया।
आकर के एक बार, निहारो तो दशा को।
बिगड़ी को बनाने की, जरा नाथ दया हो।
मन में तो अभी भी, तुम्हारे युग की ललक है।
पर तेज विदेशी हवा में, बह रही नैया।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈