श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ संजय उवाच # 93 ☆ सर्वाहारी ☆
विद्यालय में पढ़ा था कि मुख्य रूप से दो तरह के जीव होते हैं, शाकाहारी एवं मांसाहारी। मनुष्य को मिश्राहारी कहा गया था क्योंकि वह शाकाहार और मांसाहार दोनों करता है। पिछले दिनों बच्चों की किसी पाठ्यपुस्तक में मनुष्य के लिए ‘सर्वाहारी’ शब्द पढ़ा और सन्न रह गया। चिंतन का चक्र घूमा और विचारों का मंथन होने लगा।
सर्वाहारी द्वारा अँग्रेज़ी के ओमनीवोर्स का शाब्दिक अनुवाद कर अनुवादक ने बदलते समय के बदलते मूल्य का चित्र मानो पूरी भयावहता से उकेर कर रख दिया था।
सचमुच मनुष्य सबकुछ खाने लगा है। हर तरह के आहार के साथ-साथ मनुष्य ने दूसरों का अधिकार खाना शुरू किया। उसने रिश्ते खा डाले, नाते चबा डाले। ऐसा खून मुँह लगा कि भाई का हक़ खाया, बहन को बेहक़ किया। वह लाज बेचकर खाने लगा, देश बेचने में भी झिझक न रही। जो मिला खाता चला गया। उसका मुँह सुरसा का और पेट कुंभकर्ण का हो गया। आदमी के उपयोग के पदार्थ डकारने के बाद चौपायों का चारा, गौचर भूमि, पानी के संसाधन भी खा गया मनुष्य।
चौपाये भी खाने का शऊर पालते हैं। रोमंथक चौपाये खाने के बाद जुगाली करते हैं। मनुष्य चरता तो चौपाये जैसा है पर जुगाली उसके बूते के बाहर है। वह खा रहा है, बेतहाशा खा रहा है। इस कदर बेतहाशा कि जो कुछ कभी अशेष था, अब उसके अवशेष हैं। उसने वस्तु से लेकर संवेदना तक सब कुछ बेचकर खाना सीख लिया।
अक्षयकुमार जैन ने अपनी एक कविता में लिखा था कि गाय, हम मनुष्यों ने तुम्हारे दूध , मूत्र, गोबर, चमड़ी सबका तो उपयोग ढूँढ़ लिया है। केवल कटते समय तुम जो चीखती हो, उस चीख का इस्तेमाल अब तक नहीं ढूँढ़ पाए हैं। पता चला कि अरब में रईसों ने चीखों का भी व्यापार शुरू कर दिया। ऊँटों की दौड़ का लुत्फ़ उठाने के लिए गरीब एशियाई देशों के बच्चे ऊँट की पीठ से बांध दिये जाते हैं। बच्चे चीखते हैं, ऊँट दौड़ते हैं। ऊँट दौड़ते हैं, बच्चे चीखते हैं। चीख का व्यापार फलता-फूलता है।
सारा डकार जाने की प्रक्रिया ने मानवता को दो ध्रुवों में बांट दिया है। एक ध्रुव पर सर्वहारा खड़ा है, दूसरे पर सर्वाहारी। दोनों के बीच की खाई आदमियत और आदिमपन के टकराव की आशंका को जन्म देती है। इस आशंका से बचने के लिए वापसी की यात्रा अनिवार्य है। इस यात्रा में सर्वाहारी को शाकाहारी बनाना तो आदर्श होगा पर कम से कम उसे मिश्राहार तक वापस ले आएँ तो आदमियत बची रह सकेगी।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सर्वहारा मनुष्य एक शोचनीय स्थिति। अप्रतिम आलेख।
हृदय से आभार आदरणीय।