डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘मेरी दूकान’ का किस्सा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – ‘मेरी दूकान’ का किस्सा ☆
उनसे मेरा रिश्ता वैसा ही था जैसे शहर के आम रिश्ते होते हैं।कभी वे मुझे देखकर रस्म-अदायगी में हाथ लहरा देते, कभी मैं उनके बगल से गुज़रते,दाँत चमका देता।कभी वे मुझे देखकर अनदेखा कर देते और कभी मैं उन्हें देखकर पीठ फेर लेता।वे एक किराने की दूकान के मालिक थे और उन्होंने अपना नाम शायद गोलू शाह बताया था।वे एक दो बार मुझसे दरख़्वास्त कर चुके थे कि मैं सामान उन्हीं की दूकान से ख़रीदूँ क्योंकि सामान बढ़िया और वाजिब दाम पर मिलेगा।लेकिन मैं उसी दूकान से सामान ले सकता था जो उधार दे सके और तकाज़ा न करे।इसलिए मैं उनके प्रस्ताव को स्वीकार न कर सका।
ऐसे ही एक दूसरे के बगल से गुज़रते गुज़रते वे एक दिन घूम कर मेरी बगल में आ गये।बोले, ‘एक मिनट रुकेंगे?’
मैंने स्कूटर रोक लिया।वे भारी विनम्रता से बोले, ‘कैसे हैं?’
मैंने ज़बान पर चढ़ा जवाब दे दिया, ‘अच्छा हूँ।’
वे बोले, ‘बच्चे कैसे हैं?’
मैंने फिर कहा, ‘अच्छे हैं।’
वे बोले, ‘बच्चे तो अभी छोटे हैं न?’
मैंने कहा, ‘हाँ,बेटी सात साल की है और बेटा पाँच साल का।’
वे प्रसन्न होकर बोले, ‘दरअसल मैंने सदर बाज़ार में खिलौनों की दूकान खोली है।एक से एक बढ़िया खिलौने हैं।बच्चों को लेकर पधारिए।बच्चे बहुत खुश होंगे।’
मैंने टालने के लिए कहा, ‘ज़रूर आऊँगा।जल्दी ही आऊँगा।’
वे इसरार करते हुए बोले, ‘ज़रूर आइएगा।मैं आपका इन्तज़ार करूँगा।’
मैं ख़ुश हुआ।लगा कि अभी भी बाज़ार में मेरे जैसे ख़स्ताहालों की कुछ इज़्ज़त बाकी है।
एक दिन परिवार के साथ बाज़ार निकला तो मन हुआ कि बाल-बच्चों को बताया जाए कि बाज़ार में उनके बाप की कितनी साख है।उनके बाप का रूप सिर्फ दूध वाले और किराने वाले से आँख चुराने वाले का ही नहीं है।कहीं उनके बाप की पूछ-गाछ भी है।
मैंने स्कूटर सदर बाज़ार की तरफ मोड़ दिया।पत्नी ने पूछा, ‘कहाँ चल रहे हैं?’ मैं चुप्पी साधे रहा।
गोलू शाह की दूकान में मैं इस तरह अकड़ कर घुसा जैसे दूकान में पहुँच कर मैं शाह जी पर अहसान कर रहा हूँ।गोलू मुझे देखकर ऐसे गद्गद हुए जैसे भक्त के घर भगवान अवतरित हुए हों।मैंने गर्व से पत्नी की तरफ देखा।
गोलू शाह हाथ जोड़कर बोले, ‘खिलौने दिखाऊँ?’
मैंने थोड़ा सिर हिलाकर स्वीकृति प्रदान की।वे बोले, ‘आइए।’
उन्होंने एक एक कर खिलौनों को निकालना शुरू किया।बच्चों की आँखों में चमक आ गयी।लगा उनके सामने कारूँ का ख़ज़ाना फैल गया हो।कभी इस खिलौने को बगल में दबा लेते, कभी उस को।उनकी मंशा ज़्यादा से ज़्यादा खिलौनों को समेट लेने की थी।
मैंने बच्चों से पूछा, ‘कौन सा पसन्द आया?’
उन्होंने सात आठ खिलौनों की तरफ उँगली उठा दी।ज़ाहिर था कि उन्हें सब खिलौने पसन्द आ रहे थे।गोलू शाह थोड़ी दूर पर प्रसन्न मुद्रा में खड़े थे।
थोड़ी देर में उन्होंने आगे बढ़कर एक डिब्बा खोलकर एक विशालकाय भालू निकाला और उसे बच्चों के सामने रखकर हाथ बाँधकर फिर प्रसन्न मुद्रा में खड़े हो गये।बच्चे अपने खिलौनों को छोड़कर भालू की तरफ लपके।
बच्चे जब भालू में उलझे थे तभी उन्होंने एक बड़े बड़े बालों वाला प्यारा सुन्दर कुत्ता पेश कर दिया।बच्चे भालू को छोड़कर उस तरफ दौड़े।
खिलौनों के आकार-प्रकार को देखकर मेरे मन में उनके मूल्य को लेकर कुशंकाएँ उठने लगी थीं।ऊपर से अपनी अकड़ को बरकरार रखते हुए मैंने गोलू शाह से पूछा, ‘इस भालू की कीमत क्या होगी?’
गोलू शाह बत्तीसी निकालकर बोले, ‘कीमत की क्या बात करते हैं।बच्चों को देखने तो दीजिए।’
मैंने मन में उठते डर को ढकेलते हुए कहा, ‘फिर भी।बताइए तो।’
गोलू शाह आँखें बन्द करके मुस्कराते हुए बोले, ‘आपके लिए सिर्फ पाँच सौ रुपये।’
मेरी रीढ़ को ज़बर्दस्त झटका लगा।सारी अकड़ निकल गयी।गर्दन लटकने लगी।
मैंने कातर आँखों से गोलू शाह की तरफ देखकर पूछा, ‘पाँच सौ?’
गोलू शाह ने फिर आँखें बन्द कर दुहराया, ‘सिर्फ आपके लिए।’
मैंने सूखे गले से पूछा, ‘और कुत्ता कितने का है?’
गोलू शाह एक बार फिर आँखें बन्द कर बोले, ‘आपके लिए सिर्फ छः सौ का।’
मुझे लगा गोलू शाह इसलिए आँखें बन्द कर लेते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि कीमत सुनकर ग्राहक की सूरत बिगड़ जाएगी।उनका जवाब सुनकर मैं बच्चों के हाथ से खिलौने छीनकर उन्हें पीछे खींचने लगा।बच्चे खिलौनों को छोड़ नहीं रहे थे और मैं उन्हें वहाँ से खींच निकालने पर तुला हुआ था।
मेरी सारी कोशिशों के बावजूद ढाई हज़ार के खिलौने खरीद लिये गये।लघुशंका के बहाने सड़क के एक अंधेरे कोने में जाकर मैंने पर्स के नोट गिने।सिर्फ डेढ़ हज़ार थे।इनमें से गोलू शाह को दे देता तो महीने का हिसाब गड़बड़ा जाता।
मैंने गोलू शाह से झूठी शान से कहा, ‘आज तो ऐसे ही घूमते हुए आ गये थे।एक दो दिन में पेमेंट हो जाएगा।’
गोलू शाह हाथ जोड़कर झुक गये, बोले, ‘कैसी बातें करते हैं! आपकी दूकान है।पैसे कहाँ भागे जाते हैं।फिर आइएगा।’
मैं ऊपर से चुस्त और भीतर से पस्त, दूकान से बाहर आ गया।घर आकर बच्चों पर खूब झल्लाया, लेकिन वे मेरी बातों को अनसुना कर खिलौनों से खेलने में मगन रहे।
अगले माह तनख्वाह मिलने पर बजट में कटौती करके गोलू शाह को एक हज़ार रुपये दे आया।कहा, ‘बाकी तीन चार दिन में दे दूँगा।’.
गोलू फिर हाथ जोड़कर झुके, बोले, ‘क्यों शर्मिन्दा करते हैं बाउजी!आपकी दूकान है।’
उसके बाद दो माह बजट में खिलौनों के भुगतान का प्रावधान नहीं हो पाया।मैंने गोलू शाह की सड़क से निकलना बन्द कर दिया।
एक दिन उनका फोन आ गया—‘कैसे हैं जी?’
मैंने जवाब दिया, ‘आपकी दुआ से ठीक हूँ।’
‘और?’
‘ठीक है।’
‘और?’
‘बिलकुल ठीक है।’
गोलू शाह गला साफ करके बोले, ‘बहुत दिनों से आपके दर्शन नहीं हुए।मैंने सोचा फोन कर लूँ।’
मैंने कहा, ‘अच्छा किया।’
थोड़ी देर सन्नाटा।
गोलू शाह फिर गला साफ करके बोले, ‘आपके नाम कुछ पेमेंट निकलता है।सोचा याद दिला दूँ।’
मैंने कहा, ‘मुझे याद है।एक दो दिन में आता हूँ।’
वे तुरन्त बोले, ‘कोई बात नहीं।आपकी दूकान है।कई दिनों से दर्शन नहीं हुए थे, इसलिए फोन किया।कोई खयाल मत कीजिएगा।’
फिर एक महीना निकल गया।उन्हें दर्शन देने लायक स्थिति नहीं बनी।
फिर एक दिन उनका फोन आया।बोले, ‘बाउजी, आप आये नहीं।हम आपका इन्तजार कर रहे हैं।’
मैंने कहा, ‘हाँ भाई साब, निकल नहीं पाया।’
वे बोले, ‘पेमेंट कर देते, बाउजी।तीन चार महीने हो गये।’
मैंने कहा, ‘बस तीन चार तारीख तक आता हूँ।’
वे शंका के स्वर में बोले, ‘जरूर आ जाना बाउजी।काफी टाइम हो गया।’
अगले माह फिर बजट को खींच तान कर उन्हें एक हज़ार दे आया।इस बार उनके चेहरे पर पहले जैसी मुहब्बत नहीं थी।विदा लेते वक्त निहायत ठंडी आवाज़ में बोले, ‘बाकी जल्दी दे जाइएगा।मार्जिन बहुत कम है।बहुत परेशानी है।’
दो तीन माह बाद किसी तरह उनके ऋण से मुक्त हुआ।आखिरी मुलाकात में वे ऐसी बेरुखी से पेश आये जैसे हमसे कभी मुहब्बत ही न रही हो।मुझे ‘फ़ैज़’ साहब की मशहूर नज़्म का उनवान याद आया—‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग।’
कुछ दिन बाद फिर बच्चों ने धक्का देकर उनकी दूकान में पहुँचा दिया।इस बार वे मुझे देखकर कुर्सी से भी नहीं उठे।कलम से सिर खुजाते हुए नितान्त अपरिचय के स्वर में बोले, ‘हाँ जी, क्या खिदमत करूँ?’
मैंने कहा, ‘बच्चों को कुछ खिलौने देखने हैं।’
वे एक आँख मींजते हुए बोले, ‘बात यह है बाउजी कि आपके लायक खिलौने हैं नहीं।नया स्टाक जल्दी आएगा।तब तशरीफ लाइएगा।’
मैंने कहा, ‘फिक्र न करें।आज उधार नहीं करूँगा।’
वे कुछ शर्मा कर बोले, ‘वो मतलब नहीं है बाउजी।कुछ खिलौने हैं।आइए,दिखा देता हूँ।’
उनके पीछे चलते हुए मैंने कहा, ‘मैंने सोचा कि बहुत दिन से आपसे भेंट नहीं हुई।आखिर अपनी दूकान है।आना जाना चलते रहना चाहिए।’
वे धीरे धीरे चलते हुए ठंडे स्वर में बोले, ‘सच तो यह है बाउजी, कि दूकान जनता की है।अब इसे कोई अपनी समझ ले तो हम क्या कर सकते हैं।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈