डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘सीनियारिटी की फाँस‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – सीनियारिटी की फाँस ☆
उस दफ्तर में एक काम से गया था। बरामदे में से गुज़रते हुए किशोर बाबू टकरा गये। मेरे परिचित थे। वे बरामदे की पट्टी पर कुहनियाँ टेके,शून्य में ताकते, आँखें झपका रहे थे। सलाम- दुआ हुई।
मैंने पूछा, ‘आप इसी दफ्तर में हैं?’
वे बोले, ‘हाँ जी। तीस साल हो गये।’
मैं समझ गया कि फाइलें खंगालते खंगालते वे मछली की तरह थोड़ी ऑक्सीजन लेने के लिए बाहर आ गये हैं।
उनसे बात करते करते खिड़की में से मेरी नज़र एक और परिचित बृजबिहारी बाबू पर पड़ी। वे अन्दर एक मेज़ पर झुके थे।
मैंने किशोर बाबू से पूछा, ‘बृजबिहारी जी भी आपके ऑफिस में हैं?’
वे सिर हिलाकर बोले, ‘हाँ जी, वे भी यहीं हैं।’
बृजबिहारी बाबू के बालों की सफेदी को ध्यान में रखते हुए मैंने पूछा, ‘आप उनके अंडर में होंगे?’
सुनते ही किशोर बाबू का मुँह उतर गया। चेहरे पर कई रंग आये और गये। लगा जैसे मेरी बात से उनको ज़बरदस्त धक्का लगा।
एक क्षण मौन रहकर उत्तेजित स्वर में बोले, ‘क्या कह रहे हैं! बृजबिहारी जी मेरे अंडर में हैं। आई एम हिज़ सीनियर।’
मैंने सहज भाव से कहा, ‘अच्छा, अच्छा! मुझे मालूम नहीं था। उनकी उम्र देखकर मैंने उन्हें सीनियर समझा।’
वे आहत स्वर में बोले, ‘उम्र से क्या होता है?मैंने सन इक्यासी में ज्वाइन किया और वे पचासी में आये। चार साल की सीनियारिटी का फर्क है।’
मैं ‘ठीक है’ कह कर आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे जाने पर लगा कोई पीछे से आवाज़ दे रहा है। देखा तो किशोर बाबू झपटते आ रहे थे। मैं रुक गया। उनके माथे पर बल दिख रहे थे,लगता था किसी बात को लेकर परेशान हैं। पास आकर बोले, ‘आपने मुझे बहुत डिस्टर्ब कर दिया। सीनियारिटी बड़ी तपस्या के बाद मिलती है। कितनी मेहनत करनी पड़ती है। आपने बिना सोचे समझे कह दिया कि बृजबिहारी बाबू मुझसे सीनियर हैं। थोड़ा मुझसे पूछ तो लेते।’
मैंने जवाब दिया, ‘कोई बात नहीं। मुझे मालूम नहीं था।’
वे बोले, ‘आप मुझे अपना मोबाइल नंबर दीजिए। मैं आपको डिटेल में समझाऊँगा कि मैंने किस किस के अंडर में काम किया और कैसे सीनियर हुआ। आई एम वन ऑफ द सीनियरमोस्ट परसंस इन द डिपार्टमेंट।’
मैंने ‘बताइएगा’ कह कर उनसे पीछा छुड़ाया।
उस दिन उनका फोन नहीं आया। मैंने समझा बात उनके मन से उतर गयी। रात को खा-पी कर गहरी नींद में डूब गया। अचानक मोबाइल की घंटी बजी। नींद में कुछ समझ में नहीं आया। बिना चश्मे के मोबाइल भी नहीं पढ़ पाया। दीवार पर घड़ी देखी तो डेढ़ बजे का वक्त दिखा। उस तरफ किशोर बाबू थे। बुझे बुझे स्वर में बोले, ‘इस वक्त जगाने के लिए माफ कीजिएगा। बात यह है कि आपने आज मेरे पूरे दिन का सत्यानाश कर दिया। आपसे मिलने के बाद अभी तक टेंशन में हूँ। नींद नहीं आ रही है, इसलिए आपको फोन करना पड़ा। आप सीनियारिटी का मतलब नहीं समझते। उसे मामूली चीज़ समझते हैं। मैं आपको समझाता हूँ कि सीनियारिटी कैसे मिलती है और उसकी क्या अहमियत है।’ फिर वे बिना साँस लिये बताते रहे कि उन्होंने किन किन महान अधिकारियों के मार्गदर्शन में काम किया और कैसे सीनियारिटी नाम का दुर्लभ रत्न प्राप्त किया।
दस मिनट तक उनकी सफाई सुनने के बाद मैंने मोबाइल दूर रख दिया और उनके शब्दों की भनभनाहट चलती रही। जाने कब मुझे नींद आ गयी। सबेरे जब आँख खुली तो मोबाइल और किशोर बाबू,दोनों ही शान्त थे।
उस दिन से डर रहा हूँ कि किसी दिन फिर किशोर बाबू फोन करके सीनियारिटी की अहमियत न समझाने लगें।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
बहुत बढ़िया व्यंग