डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुकरणीय सीख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 94 ☆
☆ अनुकरणीय सीख ☆
‘तुम्हारी ज़िंदगी में होने वाली हर चीज़ के लिए ज़िम्मेदार तुम ख़ुद हो। इस बात को जितनी जल्दी मान लोगे, ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाएगी’ अब्दुल कलाम जी की यह सीख अनुकरणीय है। आप अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं, क्योंकि जैसे कर्म आप करते हैं, वैसा ही फल आपको प्राप्त होता है। सो! आप के कर्मों के लिए दोषी कोई अन्य कैसे हो सकता है? वैसे दोषारोपण करना मानव का स्वभाव होता है, क्योंकि दूसरों पर कीचड़ उछालना अत्यंत सरल होता है। दुर्भाग्य से हम यह भूल जाते हैं कि कीचड़ में पत्थर फेंकने से उसके छींटे हमारे दामन को भी अवश्य मलिन कर देते हैं और जितनी जल्दी हम इस तथ्य को स्वीकार कर लेते हैं; ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाती है। वास्तव में मानव ग़लतियों का पुतला है, परंतु वह दूसरों पर आरोप लगा कर सुक़ून पाना चाहता है, जो असंभव है।
‘विचारों को पढ़कर बदलाव नहीं आता, विचारों पर चलकर आता है।’ कोरा ज्ञान हमें जीने की राह नहीं दिखाता, बल्कि हमारी दशा ‘अधजल गगरी छलकत जाय’ व ‘थोथा चना, बाजे घना’ जैसी हो जाती है। जब तक हमारे अंतर्मन में चिन्तन-मनन की प्रवृत्ति जाग्रत नहीं होती, हमारा भटकना निश्चित् है। इसलिए हमें कोई भी निर्णय लेने से पूर्व उसके सभी पक्षों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। यदि हम तुरंत निर्णय दे देते हैं, तो उलझनें व समस्याएं बढ़ जाती हैं। इसलिए कहा गया है ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ क्योंकि जिह्वा से निकले शब्द व कमान से निकला तीर कभी लौटकर नहीं आता। द्रौपदी का एक वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ महाभारत के युद्ध का कारण बना। वैसे शब्द व वाक्य जीवन की दिशा बदलने का कारण भी बनते हैं। तुलसीदास व कालिदास के जीवन में बदलाव उनकी पत्नी के एक वाक्य के कारण आया। ऐसे अनगिनत उदाहरण विश्व में उपलब्ध हैं। सो! मात्र अध्ययन करने से हमारे विचारों में बदलाव नहीं आता, बल्कि उन्हें अपने जीवन में धारण करने पर उसकी दशा व दिशा बदल जाती है। इसलिए जीवन में जो भी अच्छा मिले, उसे अपना लें।
अनुमान ग़लत हो सकता है, अनुभव नहीं। यदि जीवन को क़ामयाब बनाना है, तो याद रखें – ‘पांव भले ही फिसल जाए, ज़ुबान को कभी ना फिसलने दें।’ अनुभव जीवन की सीख है और अनुमान मन की कल्पना। मन बहुत चंचल होता है। पल-भर में ख़्वाबों के महल सजा लेता है और अपनी इच्छानुसार मिटा डालता है। वह हमें बड़े-बड़े स्वप्न दिखाता है और हम उन के पीछे चल पड़ते हैं। वास्तव में हमें अनुभव से काम लेना चाहिए; भले ही वे दूसरों के ही क्यों न हों? वैसे बुद्धिमान लोग दूसरों के अनुभव से सीख लेते हैं और सामान्य लोग अपने अनुभव से ज्ञान प्राप्त करते हैं। परंतु मूर्ख लोग अपना घर जलाकर तमाशा देखते हैं। हमारे ग्रंथ व संत दोनों हमें जीवन को उन्नत करने की सीख देते और ग़लत राहों का अनुसरण करने से बचाते हैं। विवेकी पुरुष उन द्वारा दर्शाए मार्ग पर चलकर अपना भाग्य बना लेते हैं, परंतु अन्य उनकी निंदा कर पाप के भागी बनते हैं। वैसे भी मानव अपने अनुभव से ही सीखता है। कबीरदास जी ने भी कानों-सुनी बात पर कभी विश्वास नहीं किया। वे आंखिन देखी पर विश्वास करते थे, क्योंकि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती और उसका पता हमें उसे परखने पर ही लगता है। हीरे की परख जौहरी को होती है। उसका मूल्य भी वही समझता है। चंदन का महत्व भी वही जानता है, जिसे उसकी पहचान होती है, अन्यथा उसे लकड़ी समझ जला दिया जाता है।
यदि नीयत साफ व मक़सद सही हो, तो यक़ीनन किसी न किसी रूप में ईश्वर आपकी सहायता अवश्य करते हैं और आपकी चिंताओं का अंत हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि परमात्मा में विश्वास रखते हुए सत्कर्म करते जाओ; आपका कभी भी बुरा नहीं होगा। यदि हमारी नीयत साफ है अर्थात् हम में दोग़लापन नहीं है; किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं है, तो वह हर विषम परिस्थिति में आपकी सहायता करता है। हमारा लक्ष्य सही होना चाहिए और हमें ग़लत ढंग से उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। यदि हमारी सोच नकारात्मक होगी, तो हम कभी भी अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाएंगे; अधर में लटके रह जाएंगे। इसके साथ एक अन्य बात की ओर भी मैं आपका ध्यान दिलाना चाहूंगी कि हमारे पांव सदैव ज़मीन पर टिके रहने चाहिए। इस स्थिति में हमारे अंतर्मन में अहं का भाव जाग्रत नहीं होगा, जो हमें सत्य की राह पर चलने को प्रेरित करेगा और भटकन की स्थिति से हमारी रक्षा करेगा। इसके विपरीत अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता का भाव हमें वस्तुस्थिति व व्यक्ति का सही आकलन नहीं करने देता, बल्कि हम दूसरों को स्वयं से हेय समझने लगते हैं। अहं दौलत का भी भी हो सकता है; पद-प्रतिष्ठा व ओहदे का भी हो सकता है। दोनों स्थितियां घातक हैं। ये मानव को सामान्य व कर्त्तव्यनिष्ठ नहीं रहने देती। हम दूसरों पर आधिपत्य स्थापित कर अपने स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं। पैसा बिस्तर दे सकता है, नींद नहीं; भोजन दे सकता है, भूख नहीं: अच्छे कपड़े दे सकता है, सौंदर्य नहीं; ऐशो-आराम के साधन दे सकता है, सुक़ून नहीं। सो! दौलत पर कभी भी ग़ुरूर नहीं करना चाहिए।
अहंकार व संस्कार में फ़र्क होता है। अहंकार दूसरों को झुकाकर खुश होता है; संस्कार स्वयं झुक कर खुश होता है। इसलिए बच्चों को सुसंस्कृत करने की सीख दी जाती है; जो परमात्मा में अटूट आस्था, विश्वास व निष्ठा रखने से आती है। तुलसीदास जी ने भी ‘तुलसी साथी विपद् के, विद्या, विनय, विवेक’ का संदेश दिया है। जब भगवान हमें कठिनाई में छोड़ देते हैं, तो विश्वास रखें कि या तो वे तुम्हें गिरते हुए थाम लेंगे या तुम्हें उड़ना सिखा देंगे। प्रभु की लीला अपरंपार है, जिसे समझना अत्यंत कठिन है। परंतु इतना निश्चित है कि वह संसार में हमारा सबसे बड़ा हितैषी है। इंसान संसार में भाग्य लेकर आता है और कर्म लेकर जाता है। अक्सर लोग कहते हैं कि इंसान खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है। परंतु वह अपने कृत-कर्म लेकर जाता है, जो भविष्य में उसके जीवन का मूलाधार बनते हैं। इसलिए रहीम जी कहते हैं कि ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा।’
सो! संसार में मन की शांति से बड़ी कोई संपत्ति नहीं है। महात्मा बुद्ध शांत मन की महिमा का गुणगान करते हैं। ‘दुनियादारी सिखा देती है मक्कारियां/ वरना पैदा तो हर इंसान साफ़ दिल से होता है।’ इसलिए मानव को ऐसे लोगों से सचेत व सावधान रहना चाहिए, जिनका ‘तन उजला और मन मैला’ होता है।’ ऐसे लोग कभी भी आपके मित्र नहीं हो सकते। वे किसी पल भी आपकी पीठ में छुरा घोंप सकते हैं। ‘भरोसा है तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक-एक शब्द के कई-कई अर्थ निकलते हैं।’ इसलिए छोटी-छोटी बातों को बड़ा न कीजिए; ज़िंदगी छोटी हो जाती है। गुस्से के वक्त रुक जाना/ ग़लती के वक्त झुक जाना/ फिर पाना जीवन में/ सरलता और आनंद/ आनंद ही आनंद।’ हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ की तरह मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं, जो किस्मत बदल देते हैं। ऐसे लोगों की कद्र करें; वे भाग्य से मिलते हैं। अंत में मैं कहना चाहूंगी कि मानव स्वयं अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है और इस तथ्य को स्वीकारना ही बुद्धिमानी है, महानता है। सो! अपनी सोच, व्यवहार व विचार सकारात्मक रखें, यह ही आपके भाग्य-निर्माता हैं।
© डा. मुक्ता
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