श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित एक समसामयिक एवं विचारणीयआलेख “आजादी की कीमत कितना समझे हम ? ”। इस सामयिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 90 ☆
आलेख – आजादी की कीमत कितना समझे हम ?
मैं अपनी बात महाकवि जयशंकर प्रसाद जी की पंक्तियों से आरंभ करती हूँ ….
हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हंस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार
जहां पर ज्ञान, संस्कृति, संस्कार और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने जीवन को न्यौछावर कर देने वाले वीर सपूतों की गिनती नहीं की जा सकती, और उनके बलिदानों के कारण ही आज हम अपनी गुलामी की जंजीरों से मुक्त हो स्वतंत्रता का फल और जीवन जी रहे हैं। बहुत ही सुंदर शब्दों में एक गाना है जो आप सभी गुनगुनाते हैं….
हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के
इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के
क्या? कभी गाने के पीछे छिपी मनसा या उस पर विचार किया गया? एक एक शब्द में विचार करके देखिए की गुलामी की तूफान से स्वतंत्रता रूपी कश्ती को हम अब तुम सब के हवाले कर रहे हैं इसे बचा कर रखना भी है और आगे तक ले जाना भी है।
परंतु नहीं हम केवल 15 अगस्त और 26 जनवरी को मातृभूमि देशभक्ति के गीत गाकर या तिरंगा फहराकर, हाथों में बांध ली या गाल पर चिपका लिए और अपना कर्तव्य समझ शाम के आते-आते सब भूल जाते हैं।
एक सच्ची घटना को बताना चाहूंगी एक बार मैं 15 अगस्त के आस पास एक हाथ ठेले पर एक बूढ़े दादाजी से छोटे छोटे तिरंगा झंडा खरीद रही थी और बातों ही बातों में उनसे कहा कि…. यही तिरंगा बड़े दुकानों पर महंगे दामों पर बेच रहे हैं और आप क्यों सस्ते दामों पर बेच रहे हैं। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा…. बिटिया यह तिरंगा मैं बेच नहीं रहा मैं तो हमारे भारत के झंडे को जगह-जगह फैला रहा हूं। सभी के हाथों और गाड़ियों पर एक दिन ही सही तिरंगा लगा दीखे।
इसलिए जो जितना दे रहा है मैं कोई मोल भाव नहीं कर रहा। उनकी बातों से में प्रभावित हो उन्हें प्रणाम करते चली गई। आज भी उनके लिए मन श्रद्धा से भर उठता है कि उन दादा जी ने आजादी की कीमत कितना आंका हैं।
आधुनिक भारत में आजादी का मतलब राजनीति का भी होना को चुका है। जिसके दुष्परिणाम आप सब देख रहे हैं। आज सबसे बड़ी आजादी का मतलब युवा वर्ग निकाल रहा है। भारत में चरित्रिक पतन अपनी चरम सीमा पर है। जिसके कारण परिवारों का विघटन और अपनों का टूटता हुआ घर सरेआम दिखाई दे रहा है।
जिस देश में नदी पहाड पेड़ पौधे और तीर्थ स्थलों का पूजा महत्व दर्शाया गया है। वहां पर आज सांप्रदायिकता, आतंकवाद, भाषाभेद मतभेद और कुछ बचा तो राजनीतिक पार्टियों के कारण आपसी मनमुटाव बढ गया है।
भारत स्वतंत्र हो चुका है परंतु संघर्षरत बन गया है। हर जगह एकता संगठन औरअनुशासन की कमी दिखाई दे रही है।
प्राचीन सभ्यताएं नष्ट हो चुकी है। देश भक्ति की भावना महज दिखावा बनकर रह गया है। हम अपने आजादी को गलत रूप में गले लगा आगे बढ़ते जा रहे हैं। जो निश्चित ही पतन की ओर लिए जा रहा है।
आचार विचार, परस्पर सहयोग और सद्भावना मानवता जैसे शब्द अब केवल लिखने और बिकने को ही मिल रहे हैं। किसी को किसी के लिए समय नहीं है। आज मां बाप को शिक्षा की आजादी और उनकी योग्यता समझ चुप हो जाते हैं परंतु जब गलत दिशा पर जाने लगते हैं। तब वो ही आजादी कष्टदायक लगने लगती है।
विलासिता भरा जीवन अपने आप को आजादी का रूप मानने लगे हैं। आजादी का दुष्परिणाम तो आज घर घर छोटे-छोटे बच्चों से लेकर बड़ो तक बात सुनने में आता है क्या इसे ही आजादी कहा जाए? सम्मान सूचक शब्द और आदर करना पुराने रीति रिवाज लगते हैं। खुले आम गले में बाहें डाल गाड़ियों में बैठे ऐसे कितने नौजवान बेटे बेटियां दिखाई देते हैं क्या? इसे हम आजादी कहते हैं।
यदि किसी ने प्यार से समझाना भी चाहा तो उपहार कर या हूंटिग कर आगे बढ़ जाते हैं।
अगर हमारे वीर जवान ऐसे ही होते तो क्या… हमारा अपना भारतवर्ष गुलामी की बेड़ियों से मुक्त हो सकता था। कभी नहीं उन्हें तो उस समय देश प्रेम और अपनी मातृभूमि के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता था। एक आठ साल का बच्चा भी अपने गुलाम भारत को मुक्त कराने के लिए रणबांकुरे बन अपनी आहुति दे देता था।
भारतीय नारी भी अपने पूर्ण परिधानों को पहन जौहर होने या तलवार चलाने से नहीं चुकी है। इसे कहते हैं आजादी। धन्य है वह भारत के वीर सपूतों को शत शत नमन जिनके कारण आज हम स्वतंत्र भारत के नागरिक कहलाए।
स्वतंत्रता रुपी धरोहर को बचाए रखना और इसे सुरक्षित रखना हमारा कर्तव्य समझना चाहिए और इसके लिए नागरिकों को जागरुक होना चाहिए।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈