डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक विचारणीय एवं प्रेरक लघुकथा चुनाव। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 68 ☆
☆ चुनाव ☆
शिक्षा क्षेत्र का चुनाव हो रहा था। वह अपने को सब तरह से उसके योग्य समझ रहा था। क्यों ना समझे ? हमेशा मेहनत से काम जो किया है। लोगों ने समझाया कि चुनाव कैसा भी हो उसमें राजनीति होती ही है, बडी गंदी चीज है यह। कुछ ने तो खुलकर कहा – इस पचड़े में मत पडो भाई, तुम्हारे जैसे सीधे – सादे आदमी के बस की बात नहीं है यह। पर वह नहीं माना। वह बडे भरोसे से अपने उसूलों पर चुनाव लड रहा था। मतदाता कहते – आपके जैसे निष्ठावान और मेहनती शिक्षक को तो जीतकर आना ही चाहिए। शिक्षा के स्तर की ही नहीं विद्यार्थियों के भविष्य की भी बात है। उसका उत्साह दुगुना हो जाता।
चुनाव परिणाम घोषित हुए, उसका नाम कहीं नहीं था। मुँह पर तारीफ करनेवाले कुछ बिक गए थे और कुछ जाति के आधार पर बँट गए थे।
© डॉ. ऋचा शर्मा
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बिल्कुल सही, मूल्यहीनता का प्रताप, अब तो ‘दादुर बोलिहें .. या पंडित सोई जो गाल बजावा,’
समय का सच।
चुनाव में गुणवत्ता की अपेक्षा अपनापन अधिक महत्व पूर्ण लगता है, यह सच है। लेकिन चुनाव गंदी चीज नहीं है, मेरी दृष्टि से वह बहुत अच्छी है, क्योंकि इस्तेमाल करने वाले गलत दृष्टिकोण से चुनाव की ओर देखते हैं। इसलिए दृष्टिकोण में परिवर्तन चाहिए। चुनाव जनतंत्र की जड़ मजबूत करता है।