श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा “सुख-दुख के आँसू……” । )
☆ तन्मय साहित्य # 98 ☆
☆ सुख-दुख के आँसू…… ☆
“चलिए पिताजी- खाना खा लीजिए” कहते हुए बहू ने कमरे में प्रवेश किया।”
“अरे–!आप तो रो रहे हैं, क्या हुआ पिताजी, तबीयत तो ठीक है न?”
“हाँ, हाँ बेटी कुछ नहीं हुआ तबीयत को। ये तो आँखों मे दवाई डालने से आँसू निकल रहे हैं, रो थोड़े ही रहा हूँ मैं, मैं भला क्यों रोऊँगा।”
“तो ठीक है पिताजी, चलिए मैं थाली लगा रही हूँ।”
दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए बेटे ने पूछा–
“कल आप रो क्यों रहे थे, क्या हुआ पिताजी, बताइये न हमें?”
“कुछ नहीं बेटे, बहु से कहा तो था मैंने कि, दवाई के कारण आँखों से आँसू निकल रहे हैं।”
“पर आँख की दवाई तो आप के कमरे में थी ही नहीं, वह तो परसों से मेरे पास है,”
“बताइए न पिताजी क्या परेशानी है आपको? कोई गलती या चूक तो नहीं हो रही है हमसे?”
“ऐसा कुछ भी नहीं है बेटे, सच बात यह है कि, तुम सब बच्चों के द्वारा आत्मीय भाव से की जा रही मेरी सेवा-सुश्रुषा व देखभाल से मन द्रवित हो गया था और ईश्वर से तुम्हारी सुख समृध्दि की मंगल कामना करते हुए अनायास ही आँखों से खूशी के आँसू बहने लगे थे, बस यही बात है।”
किन्तु एक और सच बात यह भी थी इस खुशी के साथ जुड़ी हुई कि, रामदीन अपने माता-पिता के लिए उस समय की परिस्थितियों के चलते ये सब नहीं कर पाया था, जो आज उसके बच्चे पूरी निष्ठा से उसके लिए कर रहे हैं।
सुख-दुख की स्मृतियों के यही आँसू यदा-कदा प्रकट हो रामदीन के एकाकी मन को ठंडक प्रदान करते रहते हैं।
© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश
मो. 9893266014
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈