श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता ‘एक शब्द चित्र’। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 117 ☆

? कविता – एक शब्द चित्र  ?

 

मरीचिका मृग छौने की ,

प्रस्तर युग से कर रही ,

विभ्रमित उसे।

 

मकरन्द की,

अभिनव चाह,

संवेदन दे रही भ्रमर को नये नये ।

 

घरौंदे की तलाश में,

कीर्ति, यश की चाह में,

आकर्षण अमरत्व का,

पदचिन्ह खूबसूरत सा,

कोई बना पाने को,

मानव है भटक रहा ।

शुबहा शक नहीं,

इसमें कहीं,

भटकतों को मंजिल है,

मिलती नहीं ,

कामना है यही इसलिये,

मझधार में कोई न छूटे,

नाव खेने में जिंदगी की,

न साहस किसी का टूटे ।

 

ये विपदाओं से खेलने की शक्ति,

हर किसी को मिले,

कि जिससे हर कली,

फूल बन खिले ।।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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