डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा भँवर । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 74 ☆

☆ लघुकथा – भँवर ☆

रोज की तरह वह बस स्टैंड पर आ खडी हुई, शाम छ: बजे की बस में यहीं से  बैठती है। काम निपटाकर सुबह पाँच बजे वापस आ जाती है। बस अभी तक नहीं आई। आज घर से निकलते समय ही मन बैचैन हो रहा था। मिनी बडी हो रही है। रंग भी निखरता जा रहा है। दूसरी माँएं अपनी लडकी की सुंदरता देख खुश होती हैं, वह डरती है।

आज निकलते समय पास का ढाबेवाला मुस्कुराकर बोला —  ‘तेरी लडकी बडी हो गई  है अब ‘।  उसने अनसुना तो कर दिया पर गर्म लावे सा पडा था कानों में यह वाक्य।  मन में उथल- पुथल मच गई  – इस तरह क्यों बोला यह मिनी के बारे में? कहीं इसकी नजर तो मिनी पर  —-?  इसे मेरे बारे में कुछ पता तो नहीं चल गया ?   मिनी को इस नरक में ना ढकेल दे कोई। नहीं – नहीं ऐसा नहीं हो सकता।

आज बस क्यों नहीं आ रही है? वह बेचैन हो रही थी। इतने साल हो गए यह काम करते हुए, पता नहीं आज मन  अतीत  क्यों कुरेद रहा है? घरवाले ने साथ दिया होता तो यह  नरक ना भोगना पडता। ना मालूम कहाँ चला गया दुधमुँही बच्ची को गोद में छोडकर। बच्ची को लेकर दर- दर की ठोकरें खाती रही।  गोद में बच्ची को देखकर कोई मजदूरी भी नहीं देता। खाने के लाले पड गए थे उसके। मरती क्या ना करती?  आँसू टपक पडे।  नहीं —  उसे तो अब रोने का भी हक नहीं है।  देह- व्यापार  करनेवाली औरतों के  आँसुओं का कोई  मोल नहीं?  पुरुष यहाँ से भी बेदाग निकल जाता है, कडवाहट भर गई मन में, वहीं थूक दिया उसने।

देर हो रही है, मालिक आफत कर देगा। तभी बस आती दिखाई दी,उसने राहत की साँस ली | बस में चढने के लिए एक पैर रखा ही था कि उसके दिमाग में ढाबेवाले का वाक्य फिर से गूंजने लगा –‘ तेरी लडकी बडी हो गई  है अब।‘  — क्या करूँ? मिनी अकेली  है घर में  —  हर दिन, हर पल, एक भँवर  है?  एक पैर अभी नीचे ही था, वह झटके से बस से उतर गई। देखनेवाले हैरान थे इतनी देर से बस का इंतजार कर रही थी, इसे क्या हुआ। एक बदहवास माँ अपने घर की ओर दौडी जा रही थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मुज़फ़्फ़र सिद्दीकी

बहुत ही मार्मिक लघुकथा। शिल्प बहुत ही अच्छा गई और भाषा शैली भी सहज। धाराप्रवाह तो ऐसा कि सांस रोक कर पढ़ी।
हार्दिक बधाई।

डॉ भावना शुक्ल

मार्मिक अभिव्यक्ति