डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘दर्दे-दिल और दर्दे-दाँत – (उर्फ़ मजनूँ के ख़त प्यारी लैला के नाम)’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – दर्दे-दिल और दर्दे-दाँत – (उर्फ़ मजनूँ के ख़त प्यारी लैला के नाम) ☆
[1]
जान से भी प्यारी लैला,
आपके पाक इश्क में पूरी तरह डूबा ज़िन्दगी गुज़ार रहा हूँ। ज़िन्दगी का और कोई मकसद नहीं है। न दिन को चैन है, न रात को नींद। रात और दिन का फर्क भी आपके इश्क में जाता रहा। किसी वीराने में पड़ा इश्क में सुध-बुध खोये रहता हूँ। खाना-पीना हराम हो गया है। लुकमा मुँह में डालता हूँ तो हलक़ से नीचे नहीं उतरता। लिबास की फिक्र नहीं, ग़ुस्ल किये महीनों हुए। बदन सूख कर काँटा हो रहा है, जैसे जिस्म और रूह का फर्क ख़त्म हो जाएगा। बस दर्द की एक लहर है जो सारे वजूद में चौबीस घंटे दौड़ती रहती है। यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी, इसे कैसे दिल से जुदा करूँ? आपके तसव्वुर में होश-हवास खोये रहता हूँ। आपका दीदार मिले तो दिल को सुकून आये। लोग सरेआम मुझे लैला का दीवाना कहते हैं। ग़नीमत है कि अभी पत्थर नहीं मारते।
तीन बार शहर कोतवाल ने बुला कर बैठा लिया, फिर मेरी हालत पर तरस खाकर छोड़ दिया। पहली बार पूछने लगे, ‘क्या काम करते हो?’ मैंने बताया कि मैं फिलहाल रोज़गारे-इश्क में मसरूफ हूँ तो हँसने लगे। चन्द दीनार देकर बोले, ‘मियाँ, लो, खाना खा लेना। सिर्फ इश्क से पेट नहीं भरेगा।’ ये नासमझ दुनियावाले इश्क की अज़मत को क्या समझें। कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीमकश को। इन नादानों को कौन समझाये कि इश्क क्या शय है। इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। आदत के बाद दर्द भी देने लगा मज़ा, हँस हँस के आह आह किये जा रहा हूँ मैं। अब तो लैला ही मेरा ईमान, लैला ही मेरा ख़ुदा है। लैला नहीं तो मैं भी नहीं। दुनिया की ऊँची ऊँची दीवारें तोड़कर और अपने आशिक की ज़िन्दगी की ख़ातिर सारा जहाँ छोड़कर तशरीफ़ ले आयें। अब ये दर्द और बर्दाश्त नहीं होता। किसी शायर ने फरमाया है, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना। लेकिन मेरा दर्द तो पता नहीं कब दवा बनेगा। फिलहाल तो दर्द ही दर्द है।
अब कमज़ोरी की वजह से लिखा नहीं जा रहा है। जिस्म में जान नहीं बची। हाले दिल यार को लिखूँ क्यूँकर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता।
आपकी ज़ुल्फों का असीर,
क़ैस
[2]
जान से अजीज़ लैला,
आपको पिछला ख़त रवाना करने के बाद बड़ी मुसीबत में मुब्तिला हो गया। मैं दिन-रात आपके इश्क के दर्द में ही खोया, दीन-दुनिया से बेसुध था कि एक दिन लगा कि कोई और दर्द मेरे जिस्म में सर उठा रहा है। पहले तो मैं उसे भी दर्दे- इश्क समझा, फिर समझ में आया कि यह कोई और, घटिया किस्म का दर्द है। जल्दी ही समझ में आ गया कि यह दर्द मेरे एक दाँत से उठ रहा है। देखते देखते यह हकीर सा दर्द मेरे दर्दे-इश्क पर हावी हो गया।
चन्द लमहों में मैं इस दर्द की गिरफ्त में दीन-दुनिया को भूल गया। इश्क की डोर भी हाथ से छूट गयी। हालत यह हुई कि आपका तसव्वुर करूँ तो आपकी सूरत भी ठीक से याद न आये। हाथ दिल पर रखूँ तो दिल की बजाय दाँत पर पहुँच जाए। मुझे ख़ासी शर्म आयी कि इश्क की अज़ीम बुलन्दियों से गिरकर कहाँ इस नामुराद दाँत के दर्द में फँस गया। लेकिन मेरे होशोहवास गुम थे। बाल नोंचने के सिवा कोई सूरत नज़र नहीं आती थी।
बेबस दौड़ा दौड़ा हकीम साहब के पास गया। वे मेरी हालत देखकर हँसकर बोले, ‘मियाँ, यह दाँत का दर्द है जिसके सामने बड़े बड़े दर्द —दर्दे-दिल, दर्दे-जिगर, दर्दे-गुर्दा—सब पानी भरते हैं। इसमें फायदा यह है कि जब तक यह दर्द रहेगा तब तक आपका दर्दे-इश्क दबा रहेगा। बड़ा दर्द छोटे दर्द को बरतरफ कर देता है। ‘फिर एक तेल दिया, कहा, ‘इसे लगाओ। धीरे धीरे आराम हो जाएगा।’ उसे लगाने से दर्द कुछ कम हुआ है, लेकिन इतना नहीं कि दर्दे-इश्क उसकी जगह ले सके। कुछ वक्त लगेगा।
लेकिन इसमें शक नहीं कि इस दर्दे-दाँत ने मेरे वजूद को हिला डाला। ख़ुदा बचाये इस दर्द से।
लेकिन आप फिक्र मत करना। मेरा दर्दे- इश्क जल्दी ही पूरे जुनून पर होगा।
आपका शैदाई
क़ैस
[3]
मेरी ज़िन्दगी का मक़सद लैला,
मेरा पिछला ख़त मिला होगा। मैं इस वक्त बेहद शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूँ कि मैं कुछ वक्त के लिए एक निहायत घटिया किस्म के दर्द में फँसकर इश्क की मक़बूलियत को भूल गया था। लेकिन वह दर्द कंबख़्त इतना जानलेवा था कि उसने मेरे होश फ़ाख़्ता कर दिये थे। यूँ समझिए कि उसने मुझे अर्श से उठाकर दुनिया के सख़्त और बेरहम फर्श पर ला पटका। ख़ैर जो भी हो, वह ज़ालिम दर्द अब करीब करीब दम तोड़ चुका है और मेरा पुराना दर्दे-इश्क फिर धीरे धीरे सर उठा रहा है। मुझे पूरा यकीन है कि दो चार दिन में मेरा दर्दे-इश्क पूरे जुनून में आकर पहले की तरह छलाँगें भरने लगेगा और मैं फिर अपने पुराने दर्द की आग़ोश में गुम हो जाऊँगा। फिर मैं हूँगा और आप। बीच में न दुनिया होगी, न दर्दे-दाँत।
लेकिन फिर भी मेरे ज़ेहन में यह ख़ौफ़ हमेशा तारी रहेगा कि यह मरदूद दर्दे-दाँत कहीं फिर ज़िन्दा होकर मेरे इश्क की पुरसुकून इमारत को नेस्तनाबूद न कर दे।
आपके इश्क में गिरफ्तार
क़ैस
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
दिल को छू लेने वाला व्यंग, नफासत भरी हुई भाषा और गुदगुदाने वाली अभिव्यक्ति
सर, मजा आ गया