डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहं, क्रोध, काम व लोभ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 104 ☆
☆ अहं, क्रोध, काम व लोभ ☆
‘अहं त्याग देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने पर वह शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान हो जाता है और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है’– युधिष्ठिर की यह उक्ति विचारणीय है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है क्योंकि जब तक उसमें ‘मैं’ अथवा कर्त्ता का भाव रहेगा, तब तक उसके लिए उन्नति के सभी मार्ग बंद हो जाते हैं। जब तक उसमें यह भाव रहेगा कि मैंने ऐसा किया और इतने पुण्य कर्म किए हैं, तभी यह सब संभव हो सका है। ‘जब ‘मैं’ यानि अहंकार जाएगा, मानव स्वर्ग का अधिकारी बन पाएगा और उसे इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी’– प्रख्यात देवाचार्य महेंद्रनाथ का यह कथन अत्यंत सार्थक है। अहंनिष्ठ व्यक्ति किसी का प्रिय नहीं हो सकता और कोई भी उससे बात तक करना पसंद नहीं करता। वह अपने द्वीप में कैद होकर रह जाता है, क्योंकि सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे सबसे दूर रहने पर विवश कर देता है।
वैसे तो किसी से उम्मीद रखना कारग़र नहीं है। ‘परंतु यदि आप किसी से उम्मीद रखते हैं, तो एक न एक दिन आपको दर्द ज़रूर होगा, क्योंकि उम्मीद एक न एक दिन अवश्य टूटेगी और जब यह टूटती है, तो बहुत दर्द होता है’– विलियम शेक्सपियर यह कथन अनुकरणीय है। जब मानव की इच्छाएं पूर्ण होती है, तो वह दूसरों से सहयोग की उम्मीद करता है, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं होती। उस स्थिति में जब हमें दूसरों से अपेक्षित सहयोग प्राप्त नहीं होता, तो मानव हैरान-परेशान हो जाता है और जब उम्मीद टूटती है तो बहुत दर्द होता है। सो! मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से करनी चाहिए और अपने परिश्रम पर भरोसा रखना चाहिए… उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती है। इसलिए मानव तो खुली आंखों से सपने देखने का संदेश दिया गया है और उसे तब तक चैन से नहीं बैठना चाहिए; जब तक वे साकार न हो जाएं–अब्दुल कलाम की यह सोच अत्यंत सार्थक है। यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्म-विश्वासी है; कठिन परिश्रम करने में विश्वास करता है, तो वह भीषण पर्वतों से भी टकरा सकता है और अपनी मंज़िल पर पहुंच सकता है।
‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर समझते हो, तो तुम कमज़ोर हो जाओगे; अगर ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो तुम ताकतवर हो जाओगे’– विवेकानंद की यह उक्ति इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि मन में अलौकिक शक्तियाँ विद्यमान है। वह जैसा सोचता है, वैसा बन जाता है और वह सब कर सकता है, जिसकी कल्पना भी उसने कभी नहीं की होती। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ दूसरे शब्दों में मानव स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। इसलिए कहा जाता है कि असंभव शब्द मूर्खों की शब्दकोश में होता है और बुद्धिमानों से उसका दूर का नाता भी नहीं होता। इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य पर प्रकाश डालना चाहूंगी कि प्रतिभा जन्मजात होती है उसका जात-पात, धर्म आदि से कोई संबंध नहीं होता। वास्तव में प्रतिभा बहुत दुर्लभ होती है और प्रभु-प्रदत्त होती है। दूसरी और शास्त्र ज्ञान व अभ्यास इसके पूरक हो सकते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् अभ्यास करने पर मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है। जिस प्रकार पत्थर पर अत्यधिक पानी पड़ने से वे अपना रूपाकार खो देते हैं, उसी प्रकार शास्त्राध्ययन द्वारा मर्ख अर्थात् अल्पज्ञ व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है। स्वामी रामतीर्थ जी के मतानुसार ‘जब चित्त में दुविधा नहीं होती, तब समस्त पदार्थ ज्ञान विश्राम पाता है और दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।’ सो! संशय की स्थिति मानव के लिए घातक होती है और ऐसा व्यक्ति सदैव ऊहापोह की स्थिति में रहने के कारण अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता।
इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है हज़रत इब्राहिम का प्रसंग, जिन्होंने एक गुलाम खरीदा तथा उससे उसका नाम पूछा। गुलाम ने उत्तर दिया – ‘आप जिस नाम से पुकारें, वही मेरा नाम होगा मालिक।’ उन्होंने खाने व कपड़ों की पसंद पूछी, तो भी उसने उत्तर दिया ‘जो आप चाहें।’ राजा के उसके कार्य व इच्छा पूछने पर उसने उत्तर दिया–’गुलाम की कोई इच्छा नहीं होती।’ यह सुनते ही राजा ने अपने तख्त से उठ खड़ा हुआ और उसने कहा–’आज से तुम मेरे उस्ताद हो। तुमने मुझे सिखा दिया कि सेवक को कैसा होना चाहिए।’ सो! जो मनुष्य स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है, उसे ही दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।
क्रोध छोड़ देने पर मनुष्य शोक रहित हो जाता है। क्रोध वह अग्नि है, जो कर्त्ता को जलाती है, उसके सुख-चैन में सेंध लगाती है और प्रतिपक्ष उससे तनिक भी प्रभावित नहीं होता। वैसे ही तुरंत प्रतिक्रिया देने से भी क्रोध द्विगुणित हो जाता है। इसलिए मानव को तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए, क्योंकि क्रोध एक अंतराल के पश्चात् शांत हो जाता है। यह तो दूध के उफ़ान की भांति होता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। परंतु यह मानव के सुख, शांति व सुक़ून को मगर की भांति लील जाता है। क्रोध का त्याग करने वाला व्यक्ति शांत रहता है और उसे कभी भी शोक अथवा दु:ख का सामना नहीं करना पड़ता। काम सभी बुराइयों की जड़ है। कामी व्यक्ति में सभी बुराइयां शराब, ड्रग्स, परस्त्री- गमन आदि बुराइयां स्वत: आ जाती हैं। उसका सारा धन परिवार के इतर इनमें नष्ट हो जाता है और वह अक्सर उपहास का पात्र बनता है। परंतु इन दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त होने पर वह शरीर से हृष्ट-पुष्ट, मन से बलवान् व धनी हो जाता है। सब उससे प्रेम करने लगते हैं और वह सबकी श्रद्धा का पात्र बन जाता है।
आइए! हम चिन्तन करें– क्या लोभ का त्याग कर देने के पश्चात् मानव सुखी हो जाता है? वैसे तो प्रेम की भांति सुख बाज़ार से खरीदा ही नहीं जा सकता। लोभी व्यक्ति आत्म-केंद्रित होता है और अपने इतर किसी के बारे में नहीं सोचता। वह हर इच्छित वस्तु को संचित कर लेना चाहता है, क्योंकि वह केवल लेने में विश्वास रखता है; देने में नहीं। उसकी आकांक्षाएं सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं, जिनका खरपतवार की भांति कोई अंत नहीं होता। वैसे भी आवश्यकताएं तो पूरी की जा सकती हैं, इच्छाएं नहीं। इसलिए उन पर अंकुश लगाना आवश्यक है। लोभ व संचय की प्रवृत्ति का त्याग कर देने पर वह आत्म-संतोषी जीव हो जाता है। दूसरे शब्दों में वह प्रभु द्वारा प्रदत्त वस्तुओं से संतुष्ट रहता है।
अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जो मनुष्य अहं, काम, क्रोध व लोभ पर विजय प्राप्त कर लेता है; वह सदैव सुखी रहता है। ज़माने भर की आपदाएं उसका रास्ता नहीं रोक सकतीं। वह सदैव प्रसन्न-चित्त रहता है। दु:ख, तनाव, चिंता, अवसाद आदि उसके निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाते। ख़लील ज़िब्रान के शब्दों में ‘प्यार के बिना जीवन फूल या फल के बिना पेड़ की तरह है।’ ‘प्यार बांटते चलो’ गीत भी इसी भाव को पुष्ट करता है। इसलिए जो कार्य- व्यवहार स्वयं को अच्छा न लगे; वैसा दूसरों के साथ न करना ही सर्वप्रिय मार्ग है–यह सिद्धांत चोर व सज्जन दोनों पर लागू होता है। महात्मा बुद्ध की भी यही सोच है। स्नेह, प्यार त्याग, समर्पण वे गुण हैं, जो मानव को सब का प्रिय बनाने की क्षमता रखते हैं।
© डा. मुक्ता
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