श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 113 ☆ आत्मबोध ☆

आत्म, शुचिता का सूचक है। आत्म आलोकित और पवित्र है। गंगोत्री के उद्गम की तरह, जहाँ किसी तरह का कोई मैल नहीं होता। मैल तो उद्गम से आगे की यात्रा में जमना शुरू होता है। ज्यों-ज्यों यात्रा आगे बढ़ती है, यात्रा के छोटे-बड़े पड़ाव मनुष्य में आत्म-मोह उत्पन्न करते हैं। फिर आत्म-मोह, अज्ञान के साथ मिलकर अहंकार का रूप देने लगता है। जैसे पेट बढ़ने पर घुटने नहीं दिखते, वैसे ही आत्म-मोही की भौंहे फैलकर अपनी ही आँखों में प्रवेश कर जाती हैं। इससे दृष्टि धुंधला जाती है। आगे दृष्टि शनै: शनै: क्षीण होने लगती है और अहंकार के चरम पर आँखें दृष्टि से हीन हो जाती हैं।

दृष्टिहीनता का आलम यह कि अहंकारी को अपने आगे दुनिया बौनी लगती है। वह नाममात्र जानता है पर इसी नाममात्र को सर्वश्रेष्ठ मानता है। ज्ञानी की अवस्था पूर्ण भरे घड़े की तरह होती है। वह शांत होता है, किसी तरह का प्रदर्शन नहीं करता। अज्ञानी की स्थिति इसके ठीक विरुद्ध होती है। वह आधी भरी मटकी के जल की तरह उछल-उछल कर अपना अस्तित्व दर्शाने के हास्यास्पद प्रयास निरंतर करता है। इसीलिए तो कहा गया है, ‘अधजल गगरी छलकत जाए।’

लगभग चार दशक पूर्व  एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी। नायक दुर्घटनावश एक ऐसे कस्बे में पहुँच जाता है जहाँ जीवन जीने के तौर-तरीके अभी भी अविकसित और बर्बर हैं। नायक को घेर लिया जाता है। कस्बे का एक योद्धा, नायक के सामने तलवार लेकर खड़ा होता है। तय है कि वह तलवार से नायक को समाप्त कर देगा। अपने अहंकार का मारा कथित योद्धा, नायक का सिर, धड़ से अलग करने से पहले तलवार से अनेक करतब दिखाता है। भारी भीड़ जुटी है। एक ओर नायक स्थिर खड़ा है। दूसरी ओर से तलवारबाजी करता कथित योद्धा नायक की ओर बढ़ रहा है। योद्धा के हर बढ़ते कदम के  साथ शोर भी बढ़ता जाता है। अंततः दृश्य की पराकाष्ठा पर योद्धा ज्यों ही तलवार निकालकर नायक की गर्दन पर वार करने जाता है, अब तक चुप खड़ा नायक, जेब से पिस्तौल निकालकर उसे ढेर कर देता है। भीड़ हवा हो जाती है। ज्ञान के आगे अज्ञान की यही परिणति होती है।

अज्ञान से मुक्ति के लिए आत्म-परीक्षण करना चाहिए। आत्म-परीक्षण होगा, तब ही आत्म-परिष्कार होगा। आत्म-परिष्कार होगा तो मनुष्य आत्म-बोध के दिव्य पथ पर अग्रसर होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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माया कटारा

बधाई आदरणीय ! जब भी मन उदास होता है, आपके शब्द बोलने लगते हैं – अज्ञान से मुक्ति पाने के लिए आत्म-परीक्षण …..
आत्म -परीक्षण होगा तो आत्म साक्षात्कार होगा तभी मनुष्य आत्म बोध का दिव्य पथ पर अग्रसर होगा –
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