डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “परहित सरिस धरम नहिं भाई।)

☆ किसलय की कलम से # 61 ☆

☆ परहित सरिस धरम नहिं भाई 

परहित, परोपकार, परसेवा अथवा परमार्थ जैसे शब्दों को ही सुनकर हमारे मन में दूसरों की मदद हेतु भाव उत्पन्न हो जाते हैं। किसी भी तरह के जरूरतमंदों की सहायता करना, उनकी सेवा करना मानवसेवा का प्रमुख उदाहरण है। यदि ईश्वर ने आपको सक्षम बनाया है, या आप गरीबों की अंशतः भी मदद करते हैं तो इससे बढ़कर अच्छा कार्य और कुछ भी नहीं हो सकता। परहित का आधार मात्र आर्थिक नहीं होता। आप समाज में रहते हुए अनेक तरह से ये कार्य कर सकते हैं। आपके द्वारा किया गया श्रमदान, शिक्षादान, अंगदान, सहृदयता, अथवा भावनात्मक संबल भी परहित है। किसी को गंतव्य तक पहुँचाना, अनजान को राह दिखाना, किसी को दिशाबोध कराना सहृदयता ही है। भूखे को खाना, प्यासे को पानी, धूप से व्यथित व्यक्ति को अपने घर की छाँव देकर भी मदद की जा सकती है। अपने घर की पुरानी, अनुपयोगी वस्तुएँ, कपड़े, बर्तन, बचा भोजन आदि भी हम जरूरतमंदों को दे सकते हैं। घर के आयोजनों में कुछ गरीबों को बुलाकर उन्हें भोजन करा सकते हैं या फिर भोजन ले जाकर गरीबों में बाँट सकते हैं। गरीब बच्चों की शालेय शुल्क, पोशाक, जूते, बैग, पुरानी किताबें आदि भी दी जा सकती हैं। ये कार्य  सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से व्यापक स्तर पर भी किए जा सकते हैं। प्रतिवर्ष नवंबर, दिसंबर और जनवरी महीनों में ठंड का प्रभाव काफी बढ़ जाता है। हर किसी का सुबह और रात में निकलना मुश्किल हो जाता है। अब आप ही सोचें कि जो बेसहारा अथवा गरीब लोग विभिन्न कारणों से फुटपाथ, पेड़ों के नीचे या खुली जगह में रात काटने पर विवश होते हैं, उनकी क्या हालत होती होगी? हम यदि मानवीयता और सहृदयता के भाव से सोचेंगे तो स्वमेव लगेगा कि इन जरूरतमंदों की मदद निश्चित रूप से की जाना चाहिए। हम चाहें तो इन्हें यथासंभव खाने के पैकेट्स दे सकते हैं। इन्हें अपने घरों के पुराने कपड़े दे सकते हैं। रात में मंदिर, पूजाघरों, धर्मशालाओं, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, फुटपाथों और पेड़ों के नीचे उन तक पहुँचकर उन्हें पुराने कपड़े, ऊनी वस्त्र, कंबल, चादर आदि भी दे सकते हैं। जब भी परसेवा की बात आती है तो हर किसी के मन में एक प्रश्न जरूर उठता है- कहीं ऐसा तो नहीं कि ये ठंड में ठिठुरता अथवा भूखा आदमी अपने बुरे कर्मों से आज इस अवस्था में है, इसकी मदद करना चाहिए या नहीं। तब यहीं पर हमें अपनी नेकनियति की विशालता पहचानने की आवश्यकता होती है कि आँखों के सामने ठंड में ठिठुरते अथवा भूखे आदमी को मानवीय आधार पर यूँ ही तो नहीं छोड़ा जा सकता। हमें यह ध्यान रखना होगा कि एक इंसान होने के नाते गरीब और जरूरतमंदों की सेवा करना भी हमारा सामाजिक दायित्व है। तब देखिए, आपका यह सेवाकार्य, यह सेवाभाव आपके मन को कितनी शांति पहुँचाता है। आपकी यह प्रवृत्ति आपकी खुशी का कारण तो बनेगी ही, साथ में अन्य लोगों को भी ऐसे कार्यों हेतु प्रेरित करेगी।

मनुष्य के सामाजिक प्राणी बनने का कारण भी यही है कि वह सुख-दुख में परस्पर काम आए। अपने से कमजोर अथवा जरूरतमंदों की सहायता करे। अन्य बात यह भी है कि जब ईश्वर ने आपको इतना काबिल बनाया है कि आप समाज के कुछ काम आ सकते हैं, तब आपको दया, करुणा व नम्रता के भावों को अपने हृदय में स्थान देना चाहिए। जरूरतमंदों की पीड़ा अनुभव कर उनकी यथोचित सहायता हेतु आगे आना चाहिए।

समाज में भले ही आज परोपकारियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, फिर भी समाज में ऐसे अनेक लोग दिखाई दे ही जाते हैं जो परहित का बीड़ा उठाए नेक कार्यों में संलग्न हैं। समाज में ऐसी संस्थाएँ भी होती हैं जो निश्छल भाव से जरूरतमंदों की तरह-तरह से सहायता करती रहती हैं। कुछ संस्थाएँ ऐसी भी होती हैं जो व्यापक स्तर पर जनसेवा में जुड़ी रहने के बाद भी प्रचार-प्रसार से दूर रहती हैं। उनका मात्र यही उद्देश्य होता है कि वे यथासामर्थ्य समाज में अपना कर्त्तव्य निर्वहन करें। ऐसे लोग और ऐसी संस्थाओं को मैंने बहुत निकट से देखा है। इन्हें न तो अपनी प्रशंसा की भूख होती है और न ही किसी सम्मान की आशा। परहित कार्यों से जुड़े लोग बताते हैं कि परहित से मिली शांति और खुशी ने हमारी जीवनशैली ही बदल दी है। वे आगे कहते हैं कि दुनिया में आत्मशांति से बढ़कर कोई दूसरी चीज नहीं होती और वही हमें इस कार्य से प्राप्त होती रहती है। हमें बुजुर्गों के आशीर्वचन, बच्चों के मुस्कुराते चेहरे और जरूरतमंदों की अप्रतिम खुशी के सहज ही दर्शन हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त भी लोग पशु-पक्षियों के प्रति भी सहृदयता रखते दिखाई देते हैं। हमारे शहर में हाल ही में घटी एक घटना का संदर्भित जिक्र है कि जब एक शख्स ने एक कुत्ते की गोली मारकर हत्या कर दी, तब इस अमानवीय कृत्य को देखकर क्षेत्रीय नागरिकों का आक्रोश फूट पड़ा और प्रशासन को उसे गिरफ्तार कर उसके विरुद्ध कार्यवाही करना पड़ी। लोगों का कहना था कि आखिर एक पशु के साथ आदमी इतनी क्रूरता कैसे कर सकता है। इस अपराध के लिए उसे क्षमा नहीं किया जाना चाहिए। यह घटना एक ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने खड़ा करती है। पानी में भीगे, ठंड में ठिठुरते और गर्मियों में पशु-पक्षियों को भोजन, दाना, पानी के बर्तन, सकोरे आदि रखते हुए तो सभी ने देखा ही होगा। घायल पशु-पक्षियों की चिकित्सा कराते भी हमने देखा है। आसपास गौशालाएँ, आवारा कुत्तों की देखरेख करते लोग दिखाई दे जाते हैं। हिंदू धर्म में हिंसा को अनुचित माना गया है। जैन धर्म तो अहिंसा की धुरी पर ही चल रहा है। दुनिया में निःस्वार्थ और निःशुल्क अनगिनत चिकित्सालय संचालित हैं। असंख्य अनाथालय और वृद्धाश्रम अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। हमारे शहर में ही एक कैंसर हॉस्पिस है जहाँ कैंसर के गंभीर रोगियों को निःशुल्क चिकित्सा, दवाईयों के साथ रोगियों की सेवा-सुश्रूषा भी हॉस्पिस द्वारा की जाती है। ऐसे परोपकारियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना और ऐसे कार्यों में सहभागी बनना प्रत्येक के लिए गौरव की बात है। जीवन के अंतिम समय में जब लोग अपने ही स्वजनों की सेवा और उनके समीप जाने में भी कतराते हैं, तब ये हॉस्पिस वाले ऐसे मरीजों की अंतिम साँस तक तीमारदारी और दवाईयाँ उपलब्ध कराते हैं। इसे परोपकार का उत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है। यहाँ यह भी उल्लेख करना उचित है कि अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति के उपलब्ध होने के कारण लोग एवं मृतात्मा के परिजन लीवर, आँखें, किडनी व अन्य अंग भी दान कर मानवीयता का परिचय देते हैं।

यह बात अलग है कि समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मानवता को ताक पर रखकर स्वार्थवश इस परहित को एक धंधे के तौर पर संचालित करते हैं। ये लोग व्यक्तिगत अथवा अपनी संस्था के माध्यम से सरकारी अनुदान, लोगों के दान अथवा सहायता को स्वार्थसिद्धि का माध्यम बना लेते हैं। ये अनैतिक कार्य करने वाले लोग  अर्थ को ही ईश्वर और प्रतिष्ठा का पर्याय मानते हैं। इन्हें संपन्नता तो प्राप्त हो जाती है, लेकिन ये वास्तविक सुख शांति से सदैव वंचित ही रहते हैं।

इस दुनिया में हमने जन्म लिया है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा बुद्धि, विवेक और क्षमताएँ भी हमें अधिक प्राप्त हैं। सोचिए! क्या हमें इनका सदुपयोग नहीं करना चाहिए। सुख, शांति, प्रेम, भाईचारे व आदर्श जीवन शैली एक आदर्श इंसान की चाह होती है। यदि यह सुनिश्चित हो जाए तो एक आम इंसान इसके आगे और कोई अपेक्षा नहीं करेगा। आपकी यश, कीर्ति, मान, प्रतिष्ठा तो आपके विवेक पर निर्भर रहती है, जो आपके बुद्धि, कौशल एवं श्रम का ही सुफल होता है। यह बात अलग है कि कुछ उँगलियों पर गिने जाने वाले लोग भी होते हैं जो समाज में अराजकता, हिंसा, विद्वेष आदि फैलाकर अपना छद्म वर्चस्व स्थापित करते हैं। एक प्रतिभावान, परोपकारी व सहृदय इंसान का सम्मान कौन नहीं करेगा? फिर हमें बजाय शॉर्टकट के आदर्श मार्ग अपनाने में संकोच क्यों होता है। पता नहीं क्यों आज के अधिकांश लोग न्याय, धर्म, परोपकार व भाईचारे के मार्ग पर चलना ही नहीं चाहते। झूठी योग्यता का ढिंढोरा पीटकर स्वार्थ सिद्ध करना इंसानियत कदापि नहीं हो सकती।

आईये हम एक सच्चे इंसान की तरह आदर्श जीवनशैली अपनाएँ। खुद जिएँ और लोगों को चैन से जीने दें। भले ही कुछ इंसान असामाजिक गतिविधियों में लिप्त रहकर समाज में विकृति फैलाएँ, लेकिन हमें परोपकार के मार्ग को नहीं छोड़ना चाहिए। मानवता के पथ पर आगे बढ़कर घर, समाज और देशहित की सोच लिए आगे बढ़ते जाना है, क्योंकि दुनिया में जरूरतमंदों की मदद करना परहित का श्रेष्ठतम उदाहरण है। कहा भी गया है कि-

परहित सरिस धरम नहिं भाई,

परपीड़ा सम नहिं अधमाई।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_printPrint
5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
विजय तिवारी " किसलय "

आलेख प्रकाशन हेतु आपका बहुत बहुत आभार।
– विजय तिवारी “किसलय”