प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा # 60 ☆ गजल – सच में सूरज की चमक भी अब तो फीकी हो चली ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆
हर जगह दुर्गुण-बुराईयाँ बढ़ीं संसार में
भरोसा होता नहीं झट अब किसी के प्यार में।।
मुॅह पै मीठी बातें होती, पीठ पीछे पर दगा
दब गये सद्भावना, नय, नीति अत्याचार में।।
मैल मन का फैलता जाता धुआँ सा, घास सा
स्नेह की पगडंडियॉं सब खो गई विस्तार में।।
आपसी रिश्तों की दुनियॉं में अँधेरा छा रहा
नये तनाव-कसाव बढ़ते जा रहे व्यवहार में।।
अपहरण, चोरी, डकैती, लूट, धोखें का है युग
घुट रही ईमानदारी बढ़ते भ्रष्टाचार में।।
भावना कर्तव्य की औ’ नीति की बीमार है
स्वार्थवश हर एक की रूचि अब हवस अधिकार में।।
धन की पूजा में हवन हो गये सभी गुण-धर्म-श्रम
रंग चटक लालच के दिखते हर एक कारोबार में।।
विषैली चीजों की सजती जा रही दूकानें नई
राजनीति अनीति के बल चाहती है कुर्सियॉ
कीमतें अपराधियों की है बढ़ी सरकार में।।
सारा जग आतंक के कब्जे में फँस बेहाल है
पूरी खबरे भी कहाँ छपती किसी अखबार में।।
जिंदगी साँसत में सबकी है, मगर मुँह बंद है
डर है, बेचैनी है भारी, हर तरफ अँधियार में।।
दुराचारों की अचानक बाढ़ सी है आ गई
जाने किसकी जान पै आ जाये किस व्यापार में।।
’फलक’ सूरज की चमक तक अब तो फीकी हो चली
चाँद-तारों के तो मिट जाने के ही आसार है।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
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