डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘वर्गभेद का टॉनिक’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – वर्गभेद का टॉनिक ☆
ईश्वर ने अच्छा काम किया जो चार वर्ण बनाये—-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें जो अन्तर रखा गया वह सिर्फ कर्म का ही नहीं था, श्रेष्ठता और हीनता का भी था। यानी श्रेष्ठता में ब्राह्मण से शुरू कीजिए और उतरते हुए शूद्र तक आ जाइए। सौभाग्य से अपना चयन तथाकथित सवर्णों में हो गया, अन्यथा आज़ादी के सत्तर साल बाद भी न गाँव में घोड़ी पर बारात निकाल पाते, न ऊँची जाति के कुएँ से पानी ले पाते। अगर गलती से मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ जाते तो मन्दिर का शुद्धीकरण होता और लगे हाथ शायद अपनी भी ‘धुलाई’ हो जाती। कहने का मतलब यह कि प्रभु ने बड़ी दुर्गति और फजीहत से बचा लिया। इस महती अनुकम्पा के लिए जनम जनम तक प्रभु का आभारी रहूँगा।
ईश्वर ने एक और अच्छा काम किया कि अमीर गरीब बनाये। गरीब न हो तो अमीरों को अमीरी का एहसास कैसे हो और अमीरी की अहमियत कैसे समझ में आये। ‘हमीं जब न होंगे तो क्या रंगे महफ़िल, किसे देख कर आप इतराइएगा (या इठलाइएगा)।’ कहते हैं कि आदमी इस जन्म में जो कुछ भी भोगता है, सब पूर्वजन्म के कर्मों का फल होता है। लेकिन यह समझ में नहीं आता कि कैसे कुछ लोग राजा का जन्म पाकर भी रंक बन जाते हैं और कुछ लोग रंक से राजा। लगता है कुछ लोग असंख्य पापों के साथ एकाध पुण्य कर लेते होंगे और कुछ लोग अनेक पुण्यों के बावजूद एकाध पाप में फँस जाते होंगे, जैसे युधिष्ठिर को अश्वत्थामा की मृत्यु के बारे में मिथ्याभाषण के लिए कुछ देर तक नरकभ्रमण करना पड़ा था। जो हो, इन बातों में सर खपाने से कोई फायदा नहीं है। सब प्रारब्ध की बात है।
आजकल समाज को तीन वर्गों में बाँटा जाता है —-उच्च वर्ग, मध्यवर्ग और निम्नवर्ग। लेकिन यह ‘झाड़ूमार वर्गीकरण’ है जिसे ‘स्वीपिंग क्लासिफिकेशन’ कहते हैं। फत्तेलाल एंड संस की हैसियत पाँच दस करोड़ की है, लेकिन यदि मैं उन्हें टाटा जी के वर्ग में रखूँ तो यह मेरी मूढ़ता होगी। इसीलिए समझदार लोग इन तीन वर्गों में उपवर्ग ढूँढ़ने लगे हैं,जैसे मध्यवर्ग को अब उच्च मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग में बाँटा जाता है। इस हिसाब से तीनों वर्गों को बाँटें तो वर्गीकरण होगा ——उच्च उच्च वर्ग, मध्य उच्च वर्ग, निम्न उच्च वर्ग;उच्च मध्य वर्ग, मध्य मध्य वर्ग,निम्न मध्य वर्ग; उच्च निम्न वर्ग, मध्य निम्न वर्ग, निम्न निम्न वर्ग। थोड़ा और बारीकी में चले जाएं तो सबसे ऊपर ‘उच्च उच्च उच्च वर्ग’ और सबसे नीचे ‘निम्न निम्न निम्न वर्ग’ होगा। एक मित्र को मैंने यह वर्गीकरण सुनाया तो कहने लगा, ‘तुम्हारी यह हुच्च हुच्च सुनकर मैं पागल हो जाऊँगा।’ ईश्वर उसे ये बारीकियाँ समझने की काबिलियत दे।
हमारे देश ने अंगरेज़ी हुकूमत की जो चन्द अच्छाइयाँ बरकरार रखीं उनमें से एक यह है कि समाज को साहबों और बाबुओं में बाँट दो। साहब हाई क्लास और बाबू लो क्लास। बाबू से साहब हो जाना निर्वाण प्राप्त करने से कम नहीं है। इसीलिए साहबों और बाबुओं की कालोनियाँ अलग अलग बनायी जाती हैं। दोनों कालोनियों को पास पास रखने से साहब लोगों को प्रदूषण का डर रहता है।
अब कर्मचारी चार वर्गों में बँटे हैं —क्लास वन, क्लास टू,क्लास थ्री और क्लास फ़ोर। यहाँ भी भेद सिर्फ काम का नहीं, श्रेष्ठता का भी है। क्लास वन और क्लास फ़ोर के बीच राजा भोज और भुजवा तेली का फर्क हो जाता है। क्लास वन में भी सुपर क्लास वन होते हैं जिनकी श्रेष्ठता कल्पना से परे होती है। वैसे केन्द्रीय क्लास वन और प्रान्तीय क्लास वन में केन्द्रीय श्रेष्ठ जाति का माना जाता है। एक और वर्गीकरण ‘सीधी नियुक्ति वाला अफसर’ और ‘प्रोमोशन से नियुक्त अफसर’ का होता है। इनमें सीधी नियुक्ति वाला उच्च जाति का होता है।
मेरे एक परिचित किसी अध्ययन के लिए न्यूज़ीलैंड गये थे। जब वे वहाँ से लौटने को हुए तो उनके दफ्तर के सफाई कर्मचारी (जैनिटर) ने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया और शाम को अपनी कार से उन्हें अपने घर ले गया। हमारे देश में यह अकल्पनीय है। हमारे यहाँ नेता फाइव स्टार होटल से उत्तम भोजन मँगाकर गरीब के घर में पालथी मारकर, गरीब को दिखा दिखा कर खाते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि गरीब के घर में खाने को कुछ नहीं मिलेगा। दुनिया में लोग होटल से बचा हुआ खाना लाकर गरीबों को खिलाते हैं, हमारे यहाँ होटल से भोजन लाकर गरीब के घर में बैठ कर खाने का रिवाज है। नेताओं को यह ख़ुशफहमी है कि गरीबों के घर में बैठकर पनीर, कोफ्ता और मशरूम खाने से वे उनके हमदर्द साबित हो जाएंगे। हाल के लोकसभा चुनाव में एक नेताजी घर घर जाकर जीमने में इतने मसरूफ़ हो गये कि वोट माँगना भूल गये और चुनाव हार गये।
दरअसल मैं कहना यह चाहता हूँ कि समाज में ये जो भेद हैं ये समाज के स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं क्योंकि आज का आदमी अपने से हीन आदमी को देखकर ही जीवित और स्वस्थ रहता है। अपने से श्रेष्ठ आदमी को देखकर मनोबल में जो गिरावट होती है वह अपने से निर्बल को देखकर सुधर जाती है।
अब आप ही सोचिए कि क्लास टू, थ्री या फ़ोर न हो तो क्लास वन किसे देखकर सन्तोष करे और किस पर शासन करे?vइसी तरह क्लास टू के स्वास्थ्य के लिए क्लास थ्री, और क्लास थ्री के सुकून के लिए क्लास फ़ोर का होना ज़रूरी है। अब सरकार ने क्लास फ़ोर के सुख और सन्तोष का इंतज़ाम भी कर दिया है। उनके भी नीचे ‘डेली वेजेज़’ वाले या तदर्थ होते हैं। इनकी हालत देखकर ‘नियमित’ क्लास फ़ोर कर्मचारी अपने रक्त में कुछ वृद्धि कर सकते हैं। वैसे तो बेरोज़गारी की कृपा से अब इतने बेकार लोग दिखायी पड़ते हैं कि हर नौकरीशुदा आदमी अपने को सौभाग्यशाली समझकर अपना ख़ून और अपनी खुशी बढ़ा सकता है।
घर में जब मँहगाई की वजह से कद्दू की सब्ज़ी से सन्तोष करना पड़ता है तो गृहस्वामी को एकाएक याद आता है कि इस देश के करोड़ों लोगों को दो वक्त का भोजन नहीं मिलता। इस टिप्पणी से घर के लोगों को कद्दू का स्वाद कुछ बेहतर लगने लगता है। ऐसे ही जब घर के सामने कोई अट्टालिका उठती हुई दिखायी पड़ती है तो साधारण घर का स्वामी पत्नी से कहता है, ‘जानती हो?बंबई में आधी जनसंख्या झुग्गियों में रहती है।’ बंबई की झुग्गियों को याद करने से सामने खड़ी होती अट्टालिका के बावजूद अपना घर अच्छा लगने लगता है। बंबई की झुग्गियां हज़ारों मील दूर नगरों के गृहस्वामियों के लिए ‘टॉनिक’ भेजती हैं।
रेलों में सेकंड क्लास की मारामारी और दुर्गति देखकर ही ए.सी.के टापू में बैठने का पूरा आनन्द मिलता है। सड़क पर स्कूटर के बगल में साइकिल चले तो स्कूटर का आराम बढ़ता है, और कार वाले के बगल में उसका उछाला हुआ कीचड़ झेलता स्कूटर वाला चले तो कार का सुख दुगना होता है। देश में मरे-गिरे,खस्ताहाल स्कूल न हों तो ठप्पेदार स्कूलों में पढ़ने का क्या मज़ा?और अपने सपूत की स्कूल यूनिफॉर्म तब ज़्यादा ‘स्मार्ट’ और ‘क्यूट’ लगती है जब सड़क पर, कंधे पर बस्ता लटकाये, स्याही के दाग वाली कमीज़ पहने, नाक पोंछता, रबर की चप्पलें सटसटाता,कोई ‘देसी’ स्कूल वाला बालक दिखता है।
इसलिए सज्जनो,अपनी साड़ी इसीलिए सफेद लगती है क्योंकि दूसरे की मैली होती है। फलसफाना अंदाज़ में कहूँ तो रात के कारण ही दिन का सुख है और धूप के कारण छाया का।
निष्कर्ष यह निकलता है कि समाज के स्वास्थ्य, सुख और सुकून के लिए वर्ग-भेद ज़रूरी है। यह अवश्य होना चाहिए कि जो सबसे नीची सीढ़ी पर हैं,उनसे भी नीचे कुछ सीढ़ियों की ईजाद हो ताकि अपने से नीचे देखकर उन्हें भी कुछ संतोष प्राप्त हो। धन का न हो सके तो कम से कम संतोष का बेहतर बँटवारा होना ही चाहिए।
अब वे दिन गये जब कहा जाता था ‘देख पराई चूपड़ी मत ललचावै जीव; रूखा सूखा खायके ठंडा पानी पीव।’ अब ठंडा पानी पीने से दूसरे की चूपड़ी देखकर उठी जलन शान्त नहीं होगी। अब यह जलन तभी मिटेगी जब हमारी रोटी भी आधी चूपड़ी हो और सामने कोई ऐसा आदमी हो जिसकी रोटी बिलकुल चूपड़ी न हो।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈