प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “मुखौटे”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 64 ☆ गजल – ’मुखौटे’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
अब तो चेहरों को सजाने लग गये है मुखौटे
इसी से बहुतों को भाने लग गये हैं मुखौटे।
रूप की बदसूरती पूरी छुपा देते है ये
झूठ को सच्चा दिखाने लग गये है मुखौटे।
अनेकों तो देखकर असली समझते है इन्हें
सफाई ऐसी दिखाने लग गये है मुखौटे।
क्षेत्र हो शिक्षा का या हो धर्म या व्यवसाय का
हर जगह पर मोहिनी से छा गये है मुखौटे।
इन्हीं का गुणगान विज्ञापन भी सारे कर रहे
नये जमाने को सजाने छा गये हैं मुखौटे।
सचाई औ’ सादगी लोगो को अब लगती बुरी
बहुतों को अपने में भरमाने लगे है मुखौटे।
समय के सॅंग लोगों की रूचियों में भी बदलाव है
खरे तो खरे हुये सब मधुर खोटे मुखौटे।
बनावट औ’ दिखावट में उलझ गई है जिंदगी
हरेक को लगते रिझाने जगमगाते मुखौटे।
मुखौटों का चलन सबको ले कहॉं तक जायेगा
है ’विदग्ध’ विचारना क्यों चल पड़े है मुखौटे।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈