डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – बड़ेपन का संत्रास ☆
बंधुवर, निवेदन है कि जैसे ‘छोटे’ होने के अपने संत्रास होते हैं वैसे ही ‘बड़़े’ होने के भी कुछ संत्रास होते हैं। बड़ा होते ही आदमी के ऊपर कुछ अलिखित कायदे-कानून आयद हो जाते हैं। मसलन,बड़े आदमी को मामूली आदमी की तरह गाली-गुफ्ता का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए,या सड़क के किनारे ठेलों पर खड़े होकर चाट -पकौड़ी नहीं खाना चाहिए (कार के भीतर खायी जा सकती है), या घर में बीवी से झगड़ा करते वक्त खिड़कियां बन्द कर देना चाहिए और टीवी की आवाज़ तेज़ कर देना चाहिए। यह भी कि मेहनत के काम खुद न करके छोटे लोगों से कराना चाहिए। हमारे समाज में संपन्नता की पहचान यही है कि हाथ-पाँव कम से कम हिलाये जायें। देखकर लगता है ऊपर वाले ने व्यर्थ ही इन्हें हाथ-पाँव दे दिये।
मेरी तुरन्त की पीड़ा यह है कि घर की पानी की मोटर खराब हो गयी है और मुझे कुछ दूर नल से पानी लाना पड़ता है। पानी लाने में खास कायाकष्ट नहीं है लेकिन मुश्किल यह है कि नल से घर तक पानी लाने में तीन-चार घरों के सामने से गुज़रना पड़ता है। भारी बाल्टियां लाने में पायजामा पानी में लिथड़ जाता है। दो-तीन चक्कर लगाने में अपनी इज़्ज़त अपनी ही नज़र में काफी सिकुड़ जाती है। जिस दिन पानी भरता हूँ उस दिन शाम तक हीनता-भाव से ग्रस्त रहता हूँ।
यही संकट गेहूं पिसाने में होता है। पहले जब साइकिल के पीछे कनस्तर रखकर ले जाता था तब एक बार में काफी इज़्ज़त खर्च हो जाती थी। जब से स्कूटर ले लिया तब से पेट्रोल तो ज़रूर खर्च होता है, लेकिन इज़्ज़त कम खर्च होती है।
कुछ दिन पहले तक सामने वाले घर के अहाते में कई टपरे बने थे। छोटे-मोटे कामों के लिए सामने से किसी को बुला लेते थे, इज़्ज़त बची रहती थी। जब से टपरे टूट गये तब से हम सभी नंगे हो गये। लगता है ये छोटे आदमी ही हमारी इज़्ज़त को ढंके हैं। जिस दिन इनका सहारा नहीं मिलेगा उस दिन बड़े लोग कौड़ी के चार हो जाएंगे।
कभी मेरे नीचे वाले मकान में एक सरकारी अधिकारी रहते थे। एक दिन मैंने उनके घर में एक करिश्मा देखा। शाम को पति और पत्नी आराम से लॉन में टहल रहे थे। पास ही स्कूटर खड़ा था। मैंने देखा कि एकाएक बिजली की तेज़ी से पति महोदय ने स्कूटर का हैंडिल पकड़ा और पत्नी ने पीछे से धक्का दिया। पलक झपकते स्कूटर बरामदे में चढ़ गया। इसके बाद पति-पत्नी फिर उसी तरह लॉन में टहलने लगे। सब काम किसी सिनेमा के दृश्य जैसा हो गया और मैं भौंचक्का देखता रह गया। मैंने सोचा, हाय रे, बड़ापन लोगों को कैसे मारता है। स्कूटर रखना है लेकिन सबके सामने रखने से अफसरी में बट्टा लगता है, इसलिए तरह तरह के कौतुक करने पड़ते हैं।
बहुत से लोग अपने बाप- दादा का बड़ापन कायम रखने में अपनी ज़िंदगी होम कर देते हैं। बाप-दादा का कमाया कुछ बचा नहीं, लेकिन उनकी शान-शौकत बनाये रखने के लिए बची-खुची ज़मीन-ज़ायदाद बेचते रहते हैं और नयी पीढ़ी का भविष्य बरबाद करते रहते हैं।
एक घर में जाता हूँ तो देखता हूँ साहब, मेम साहब और बच्चे तो सजे-धजे हैं लेकिन नौकर का हाफपैंट ऊपर से नीचे तक फटा है। मन होता है साहब से कहूँ कि हुज़ूर, मेरे और अपने जैसे भद्रलोक की खातिर नहीं तो कम से कम मेम साहब की शर्म की खातिर ही इसके शरीर को ढंकने का इंतज़ाम कर दीजिए। इसलिए मेरा अपने वर्ग के सब लोगों से निवेदन है कि यह जो ‘छोटा आदमी’ नाम की चीज़ है उसी पर हमारी इज़्ज़त की यह खुशनुमा इमारत खड़ी है। इसलिए इस चीज़ को ज़रा लाड़-प्यार से रखो ताकि यह चीज़ रहे और इसकी बदौलत हमारी खुशनुमा इमारत बुलन्द बनी रहे।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
बहुत सुंदर, सटीक व सार्थक अभिव्यक्ति।