श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 124 ☆ स्वर्गादपि गरीयसी ?

लोकतन्त्र को जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन के रूप में परिभाषित किया जाता है। गणतंत्र को एक अर्थ में लोकतंत्र का अधिकृत  क्रियान्वयन कहा जा सकता है। गणतंत्र की अपनी स्थूल देह नहीं होती पर अपने हर नागरिक की हर साँस में दम भरता है गणतंत्र। गणतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता प्रत्येक  नागरिक में समाहित होती है।

मतितार्थ स्पष्ट है। सत्ता यदि हरेक में समाहित है तो दायित्व भी हरेक का है। एक प्रेरक घटना याद आ रही है। जापान के एक विद्यालय में विदेशी प्रतिनिधिमंडल पहुँचा। दस-बारह वर्षीय एक छात्र से प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने प्रश्न किया, ‘यदि कोई शत्रु तुम्हारे देश पर आक्रमण कर दे तो तुम क्या करोगे?’ छात्र ने कहा, ‘मैं शत्रु का डटकर मुकाबला करूँगा। शत्रु का शीश काटकर अपनी मातृभूमि पर अर्पित कर दूँगा।’ प्रतिनिधिमंडल इतनी-सी आयु के बालक के इस उत्तर से अवाक रह गया। सदस्यों ने इस भावना का गहरे तक जाकर विश्लेषण करने की ठानी। बालक से उसके धर्म, पंथ, संप्रदाय की जानकारी ली। बालक स्थानीय मान्यता के एक पंथ से सम्बंधित था। यह पंथ एक देवता विशेष की पूजा करता है। प्रतिनिधिमंडल ने विचारपूर्वक अगला प्रश्न किया, ‘यदि तुम्हारे पंथ का देवता तुम्हारे देश पर आक्रमण कर दे तो तुम क्या करोगे?’  छात्र ने बिना किसी हिचकिचाहट के उत्तर दिया,’ मैं देवता से युद्ध करूँगा। आवश्यकता पड़ी तो देवता का शीश काटकर अपनी मातृभूमि पर अर्पित कर दूँगा।’

अनन्य मार्गदर्शक संदेश है। निजी आस्था अनेक हो सकती हैं पर सामूहिक और सर्वोच्च आस्था है देश। तभी तो भारतीय संस्कृति का उद्घोष है, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ इस उद्घोष का वर्तन ही गणतंत्र का रक्षण करता है। हम भारतीय इसी भाव से भारत के गणतंत्र की सदा रक्षा करें। हमारा गणतंत्र स्वस्थ रहे, चिरंजीव हो।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

3 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Rita Singh

सत्य कहा , देश सर्वोपरि है सुंदर आलेख

अलका अग्रवाल

हर व्यक्ति की आस्था अनेक हो सकती हैं पर, सबकी सामूहिक और सर्वोच्च आस्था देश ही है। अप्रतिम अभिव्यक्ति।

माया कटारा

देश अपने अस्तित्व की पहचान होती है,अपनी मिट्टी माता सम होती है माँ, मातृभूमि, भाषाई प्रेम हमारी आस्था , श्रद्धा का प्रतीक हैं, नि:संदेह देश सर्वौपरि है ।एक देशभक्त ही ऐसा आलेख लिख सकता है ….कृतार्थ