श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “अभी थे वे, अब नहीं है…..”।)
☆ तन्मय साहित्य #118 ☆
☆ अभी थे वे, अब नहीं है….. ☆
अभी थे वे, अब नहीं है
जिंदगी का, सच यही है।
आज तो उनने, सुबह की चाय पी थी
और सब को, रोज जैसी राय दी थी
सुई-धागा हाथ में ले, सिल रहे थे,
बाँह कुर्ते की फटी, निरुपाय सी थी।
उलझते से, क्षुब्ध टाँके
कुछ कहीं, तो कुछ कहीं है
जिंदगी का सच यही है….
कह रहे थे, काम हैं कितने अधूरे
कामना थी, शीघ्र वे हो जाएँ पूरे
हैं सभी अंजान हम अगली घड़ी से,
एक पल में ध्वस्त सब मन के कँगूरे।
एषणाओं से भरा मन
अनगिनत खाते-बही है
जिंदगी का सच यही है….
कल नहा कर जब,अगरबत्ती जलाई
प्रार्थना के संग, फूटी थी रुलाई
बुदबुदाते से स्वयं, कुछ कह रहे थे,
किस अजाने से, उन्होंने लौ लगाई।
दिप्त मुखमुद्रा विलक्षण
जो दिखी वह अनकही है
जिंदगी का सच यही है….
बुलबुले हँसते-विहँसते जो खिले ये
कौन से पल बून्द बन जल में मिले ये
क्रम यही बनने-बिगड़ने का निरंतर,
जिंदगी के सर्वकालिक सिलसिले ये।
श्वांस सेतु, बटोही का
देहावरण शाश्वत नहीं है
जिंदगी का सच यही है
अभी थे वे, अब नहीं है।
© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश
मो. 9893266014
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈