श्री संजय भारद्वाज

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 124 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ?

सोसायटी की पार्किंग में लगभग चार साल का एक बच्चा खेल रहा है। वह ऊपरी मंज़िल पर रहने वाले आयु में अपने से बड़े किसी मित्र को आवाज़ लगा रहा है, “…भैया खेलने आओ।”…”अभी पढ़ रहा हूँ “…, मित्र बच्चे का स्वर सुनाई देता है।…” अच्छा कब आओगे?”… ” छह बजे…”, …”ठीक है, छह बजे आओ..।” वह फिर से खेलने में मग्न हो गया।

यह छोटू अभी घड़ी देखना नहीं जानता। छह कब बजेंगे, इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं है पर उसका अंतःकरण शुद्ध है, विश्वास दृढ़ है कि छह बजेंगे और भैया खेलने आएगा।

विचारबिंदु यहीं से विस्तार पाता है। जीवन में ऐसा कब- कब हुआ कि कठिनाइयाँ हैं, हर तरफ अंधेरा है पर दृढ़  विश्वास है कि अंधेरा छँटेगा, सूरज उगेगा। इस विश्वास को फलीभूत करने के लिए कितना डूबकर कर्म  किया? कितने शुचिभाव से ईश्वर को पुकारा? ईश्वर को मित्र माना है तो शत-प्रतिशत समर्पण से  पुकार कर तो देखो।

कुरुसभा के द्यूत में युधिष्ठिर अपने सहित सारे पांडव हार चुके। दाँव पर द्रौपदी भी लगा दी। दु:शासन केशों से खींचते हुए पांचाली को सभा में ले आया। दुर्योधन के आदेश पर सार्वजनिक रूप से वस्त्रहरण का विकृत कृत्य आरम्भ कर दिया। द्रुपदसुता ने पराक्रमी पांडवों की ओर निहारा।  पांडव सिर नीचा किये बैठे रहे। यथाशक्ति संघर्ष के बाद  असहाय कृष्णा ने अंतत: अपने परम सखा कृष्ण को पुकारा, ‘ अभयम् हरि, अभयम् हरि।’ मनसा, वाचा, कर्मणा जीवात्मा पुकारे, परमात्मा न आये, संभव ही नहीं। कृष्ण चीर में उतर आए। चीर, चिर हो गया। खींचते-खींचते आततायी दु:शासन का श्वास टूटने लगा, निर्मल मित्रता पर द्रौपदी का विश्वास जगत में बानगी हो चला।

इसी भाँति गजराज का पाँव  पानी में खींचने का प्रयास ग्राह ने किया। अनेक दिनों तक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष चला। मृत्यु निकट जान गजराज ने आर्त भाव से प्रभु को पुकारा। गजराज की यह पुकार ही स्तुति रूप में गजेन्द्रमोक्ष बनी।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते

स आत्ममूलोवतु मां परात्परः।

अर्थात अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए, सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले, कार्य-कारणरूप जगत को जो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप से देखते रहते हैं, वे परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।…गज की न केवल रक्षा हुई अपितु भवसागर से मुक्ति भी मिली।

शुद्ध मन, निष्पाप भाव, दृढ़ विश्वास की त्रिवेणी भीतर प्रवाहित हो रही हो और आर्त भाव से ईश्वर से पूछ सको कि भैया कब आओगे, तो विश्वास रखना कि हाथ में घड़ी हो या न हो, समय देखना आता हो या न आता हो, तुम्हारे जीवन में भी छह बजेंगे अवश्य।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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वीनु जमुआर

अद्भुत ! पठन-चिंतन-मनन का समुच्चय। हृदय से बधाई एवं आशीष।

अलका अग्रवाल

सच मन की पुकार अंततः पहुंच ही जाती है। बहुत बढ़िया व सार्थक रचना। हार्दिक बधाई।

लतिका

हिंमत और अचूकता से विजय।