(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि जी के काव्य संग्रह “एक दिया देहरी पर” की समीक्षा।
पुस्तक चर्चा
कृति… एक दिया देहरी पर
कवियत्री… सुषमा व्यास राजनिधि
संस्मय प्रकाशन, इंदौर
ISBN 978-81-95264-12-4
मूल्य २०० रु, पृष्ठ १०८
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 108 ☆
☆ “एक दिया देहरी पर” – कवियत्री… सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
“धन, वैभव, राज सब ठुकरा देना
आंगाष्टिक मार्ग सेतप संयम की राह अपनाना
सिद्धार्थ से सिद्धस्थ हो जाना
मौन से हर उत्तर दे पाना
इतनाआसान तो नही बुद्ध हो जाना”
या
“उसके अंदर सांझा चूल्हा है
तंदूर धधक रहा है
वो निगल नही सकता रोटी
उसके पास मुंह ही नही
फिर भी वह मुस्करा रहा है “
अथवा
“जब तुम मूड में हो
हँसो तो वह भी हँस ले
जब तुम गिल्टी हो
तो उसे भी होना ही चाहिये
तुम्हें क्या लगता है
स्त्री कोई उपयोग करने वाली चीज है ?
इन सब पंक्तियों को पढ़ने के बाद आपको क्या लगता है कि ये किसी नई कवियत्री की पहली किताब से उधृत कविता अंश हैं ? पर हाँ यह सच ही सुषमा व्यास राजनिधि के प्रथम काव्य संग्रह “एक दिया देहरी पर” की कविताओ को पढ़ते हुये जिन ढ़ेरो पक्तियो को मैंने लाल स्याही से रेखांकित किया है, उन्हीं में से चंद पंक्तियां हैं. सुषमा जी रिश्तों, घर परिवार, धन धान्य, सदव्यवहार से परिपूरित एक आध्यात्मिक दृष्टि वाली भाषा संपन्न सरल रचनाकार हैं. एक दिया देहरी पर में उन्होने तीन खण्डों में अपनी ४५ अकवितायें साहित्य जगत के सम्मुख रखीं हैं. शैली, भाषा, काव्य में भावगत सौंदर्य, रचना सौष्ठव परिपक्व है. स्त्री विमर्श की कवितायें नारी खण्ड में हैं, जिनमें माई का पल्लू, घर से जाती बेटियां, नारी मन के भाव बेलती रोटियां, मैं सितार सी, खुद को खुद में ढ़ूंढ़ रही हूं, धरा सी नारी, मेरा कोना, मैं भी चुनरिया, अनगढ़ी आदि प्रभावोत्पादक हैं. उनकी आध्यात्मिक दृष्टि व पौराणिक ज्ञान ही उनसे लिखवाता है
“ओ स्त्री तुम पैदा नही हुई, बना दी गई हो….
तुम कभी अनुसूया बनी कभी अहिल्या बनी बरसों बरस
शिला बन सहती रहीं वर्षा, शीत, ग्रीष्म….
सीता, द्रौपदि, तारा बनकर शोषित होती रहीं पर अब तुम उठ खड़ी हो गई हो….
मेरी आशा है कि यह आव्हान नारी अस्मिता और जीवन दर्शन में शाश्वत प्रेम के जागरण की नई इबारत लिखेगा.
सुषमा व्यास राजनिधि जी व्यंग्य, आध्यात्म, मंच संचालन आदि विविध विधाओ में समान रूप से पारंगत हैं उनसे अनवरत बहुआयामी लेखन की अपेक्षा साहित्य जगत रखता है. एक दिया देहरी पर अक्षय प्रकाश करता रहे यही शुभेच्छा करता हूं.
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈