श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 21 – परम संतोषी भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
देखते देखते वह दिन भी आ गया जिसका इंतजार पूरी ब्रांच करती है,फाइनल डे जब ब्रांच की इंस्पेक्शन रिपोर्ट शाखा प्रबंधक को परंपरागत रूप से सौंपी जाती है और शाखा संचालन की स्थिति प्रगट होती है.सबके परिश्रम,बेहतर टीम वर्क, कुशल नेतृत्व और मिले आश्रित शाखाओं के समयकालीन सहयोग से शाखा ने दक्षतापूर्ण संचालन की रेटिंग प्राप्त की.पूरी ब्रांच में संतुष्टि और खुशी का माहौल बन गया.मौकायेदस्तूर मुंह मीठा करने का था तो बाकायदा शहर की प्रसिद्ध स्वीट शॉप से सबसे बेहतर मिठाई का रसास्वादन किया गया.चूंकि उस दिन संयोग से मंगलवार था,पवनपुत्र हनुमानजी जी का दिन,तो उस दिन परंपरागत चढ़ाया गया प्रसाद भी साथ में वितरित किया गया.संकटमोचक से पूरे निरीक्षण काल में लगभग डेढ़ साल किये गये अथक परिश्रम का मनोवांछित फल प्राप्त किये जाने की प्रार्थना अंततः फलीभूत हुई. शाखा की स्टाफ की टीम के वे सदस्य, जिनकी पदोन्नति की पात्रता थी,इस सुफल से आशान्वित हुये और उनकी उम्मीदों ने परवान पाया.संतोषी जी खुश थे और ये खुशी ,इंस्पेक्शन रेटिंग के अलावा, सहायक महाप्रबंधक की मेज़बानी और उनके स्निग्ध व्यवहार से भी उपजी थी. रीज़नल मैनेजर के विश्वास पर वे सही साबित हुये, इसका आत्मसंतोष भी था और शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय की उनके प्रति उत्पन्न अनुराग को भी वे महसूस कर चुके थे.अपनी इस पद्मश्री प्रतिभा के सफल प्रदर्शन पर वे संतुष्ट थे और इसके अलावा उन्हें कुछ और लाभ चाहिए भी नहीं था.
अंततः शाम को इंस्पेक्शन टीम के सम्मान में फेयरवेल आयोजित की गई. सहायक महाप्रबंधक ने सभी स्टाफ के किये गये परिश्रम को स्वीकारा और यही टीम स्प्रिट आगे भी काम करती रहे, ऐसी आशा प्रगट की. उन्होंने संतोषी साहब के सहयोग को भी मान दिया और कहा कि “वैसे तो हर खेल घोषित नियमों से खेले जाते हैं पर परफॉर्मेंस कभी कभी अघोषित पर हितकारी नियमों और प्रतिभा से भी परवान पाती है. एक कुशल टीम लीडर वही होता है जो अपनी टीम के हर सदस्य की मुखर और छुपी हुई प्रतिभा को पहचाने और शाखा की बेहतरी के लिये उनका उपयोग करे.शाखा प्रबंधक और शाखा से उम्मीद और अपेक्षा उनकी भी रहती है और ज्यादा रहती है जो बैंक काउंटर्स के उस पार खड़े होते हैं, याने शाखा के ग्राहक गण. यही लोग शहर में शाखा और बैंक की छवि के निर्धारक बन जाते हैं. इनकी संतुष्टि, स्टॉफ की आत्मसंतुष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है.
विदाई के दूसरे दिन से ही,जैसाकि होता है,शाखा अपने नार्मल मोड में आ गई. जिन्हें अपने महत्वपूर्ण कार्यों से छुट्टियों पर जाना था और जो निरीक्षण के कारण स्थगित हो गईं थी,वे सब अपनी डिमांड मुख्य प्रबंधक को कह चुके थे.आसपास की आश्रित शाखाओं के प्रबंधक भी ,छुट्टी पर जाने की उम्मीद लेकर आते थे.वे सारे समझदार ग्राहक, जिनके काम उनकी समझदारी का हवाला देकर विलंबित किये गये थे,अब बैंक में काम हो जाने के प्रति तीव्रता के साथ आशान्वित होकर आ रहे थे. शाखा के मुख्य प्रबंधक, चुनौती पूर्ण समय निकल जाने के बाद आये इस शांतिकाल में ज्यादा तनावग्रस्त थे क्योंकि इंस्पेक्शन के दौरान बनी टीम स्प्रिट धीरे धीरे विलुप्त हो रही थी. पर शायद यही सच्चाई है कि सैनिक युद्ध काल के बाद सामान्य स्थिति में नागरिकों जैसा व्यवहार करने लगते थें।ये सिर्फ बैंक की नहीं शायद हर संस्था की कहानी है कि चुनौतियां हमें चुस्त बनाती हैं और बाद का शांतिकाल अस्त व्यस्त. पहले पर्व निरीक्षण याने इंस्पेक्शन की कहानी यहीं समाप्त होती है पर शाखा, संतोषी जी और अगला पर्व याने वार्षिक लेखाबंदी अभी आना बाकी है. ये कलम को विश्राम देने का अंतराल है जो लिया जाना आवश्यक लग रहा था. इस संपूर्ण परम संतोषी कथा पर आपकी प्रतिक्रिया अगर मिलेगी तो निश्चित रूप से मार्गदर्शन करेगी. हर लेखक और कवि इसकी अपेक्षा रखता है जो शायद गलत नहीं होती. धन्यवाद.
परम संतोषी की इंस्पेक्शन से संबंधित अंतिम किश्त.
© अरुण श्रीवास्तव
संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈