श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)   

☆ कथा – कहानी # 22 – परम संतोषी भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत फिर से, क्या करते हैं आप आज असहमत का कार्यक्रम सुबह फिर जलेबी-पोहा खाने का बना. सबेरे यही किया जाता है, ब्रेकफास्ट और कड़क चाय के बाद ही लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय होते हैं. तो घर से बाहर निकलकर, सीधे सीधे सत्तर कदम चलने के बाद नुक्कड़ पर असहमत के कदम थम गये. दो रास्ते थे, राईट जाता तो मंदिर पहुंचता और लेफ्ट जाता तो गरमागरम जलेबियाँ खाता. असहमत, स्वतंत्र विचारों की रचना थी, गरमागरम जलेबी खाने का फैसला अटल था तो राइट नहीं लेफ्ट ही जाना था. पर नुक्कड़ पर चौबे जी खड़े थे. दोनों एक दूसरे को नज़र अंदाज़ कर सकते थे पर जब असहमत ने चौबे जी से “हैलो अंकल” कहा तो बात से बात निकलने का सिलसिला शुरु हो गया. चौबे जी तो श्राद्ध पक्ष से ही असहमत से खार खाये बैठे थे तो मौके का भरपूर प्रयोग किया. “अरे प्रणाम पंडित जी कहो, अंगरेज चले गये औलाद छोड़ गये. “

असहमत : अरे पंडित जी औलाद नहीं अंगरेजी है, अंग्रेजी छोड़ गये.

चौबे जी: तुम्हारे जैसे अंग्रेजों के गुलाम ही हिंदू धर्म को कमजोर कर रहे हैं तुम नकली हिंदुओं के कारण ही हिंदू एक नहीं हो पाते.

असहमत: अरे चोबे जी, ऐसा तो मत कहो, मैं मंदिर जाता हूँ जब मेरा मन अशांत होता है. “इस्लाम खतरे में है ” बोलबोलकर उन्होंने सरहद पार आतंकवादियों की फसल तैयार कर दी, अब आप हमको क्या सिखाना चाहते हो. भक्त और भगवान का तो सीधा लिंक है फिर ये एकता वाली चुनावी बातें किसलिए.

चौबे जी : हमको ज्ञान मत बांटो, तुम्हारे जैसे दो टके के लोग वाट्सएप पढ़ पढ़ कर ज्ञानी बने घूमते हैं. चलो हमारे साथ, राईट टर्न लो जहाँ मंदिर है.

असहमत : मैं अभी तो लेफ्ट ही लूंगा क्योंकि गरमागरम जलेबी और पोहा मेरा इंतजार कर रहे हैं, डिलीवरी ऑन पेमेंट. चलना है तो आप चलो मेरे साथ. चौबे जी का मन तो था पर बिना मंदिर गये वो कुछ ग्रहण नहीं करते थे.

तो चौबे जी ने अगला तीर छोड़ा ” हिंदू धर्म मानते हो तुम, मुझे तो नहीं लगता.

असहमत : अरे पंडित जी, ऐसी दुश्मनी मत निकालो, बजरंगबली का भक्त हूं मैं, थ्रू प्रापर चैनल पहुंचना है राम के पास. मेरे धर्म में मंदिर हैं, दर्शन की कतारें हैं, पूजा है, आरती है, जुलूस हैं, भंडारे हैं, ऊंचे पर्वतों पर माता रानी बैठी हैं और गुफाओं में शिव, बजरंगबली के दर्शन कभी कभी मंगलवार को कर लेता हूं पर जब यन अशांत होता है तो जरूर मंदिर जाता हूं, बहुत शांति और ऊर्जा मिलती है मुझे.

असहमत के जवाबों और अंदर की आस्था ने, धर्म के ब्रांड एम्बेसडर को हिला दिया. तर्क का स्थान असभ्यता और अनर्गल आरोपों ने ले लिया.

चौबे जी : चल झूठे, दोगला है तू, साले देशद्रोही है.

अब पानी शायद असहमत के सर से ऊपर जा रहा था या फिर गरमागरम जलेबी ठंडी होने की आशंका बलवती हो रही थी पर देशद्रोही होने का आरोप सब पर भारी पड़ा. जलेबी और पोहे को भूलकर, असहमत ने चौबेजी से कहा: अब ये तो आपने वो बात कह दी जिसे कहने का हक आपको देश के संविधान ने दिया ही नहीं. आप मुझे नकली हिंदू कहते रहते हैं मुझे बुरा नहीं लगता पर देशद्रोही, कैसे

  1. मैं तिरंगे का अपमान नहीं करता
  2. जब राष्ट्र गीत बजता है तो मैं चुइंगम नहीं खाता.
  3. मैं रिश्वत नहीं खाता, चंदा नहीं खाता
  4. आपत्तिजनक नारे नहीं लगाता
  5. सेना में भर्ती होना चाहता था पर उनके मानदंडों पर पास नहीं हो पाया.
  6. न मैं देशविरोधी हूँ और ना तो मैं सोचता हूँ न ही मेरी औकात है
  7. मैं कोई अपराध भी नहीं हूँ, बेरोजगारी मुझे कभी कभी गुस्सा दिलाती है तो मैं जिम्मेदार लोगों की आलोचना करने लगता हूँ. मैं अपना वर्तमान सुधारने में लगा हूँ और वो इतिहास सुधारने में. अरे भाई लोगों मेरी चिंता करो, मुझे मेरे वोट का प्रतिदान चाहिये, मेरी समस्याओं का समाधान चाहिये, आपके वादों के परिणाम चाहिए. और आप हैं लगे हुये अगली वोटों की फसल उगाने में. एक फसल जाती है फिर दूसरी आती है और हमारे जैसे लोग हर गली हर नुक्कड़ पर इंतजार करते हैं वादों और सपनों के साकार होने का.

बात चौबे जी के लेवल की नहीं थी, उनके बस की भी नहीं तो उन्होंने इस मुलाकात का दार्शनिक अंत किया, वही संभव भी था और मंदिर की ओर बढ़ गये.

 “होइ हे वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढावे साखा”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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