श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 16☆

 

☆ संजय दिव्यकर्ण है ☆

एक मणिकर्णिका घाट है जहाँ शवों का अहर्निश दाह है। निरंतर दहकती है चिता। एक माधवी की कोख है जो हर प्रसव के बाद अक्षता है। कोख का हत्यारा एक अश्वत्थामा है जो चिरंजीव होने का शाप ढोता है। एक ययाति है जो चिरयुवा होने की तृष्णा में अपनी ही संतानों के हिस्से का यौवन भी भोगता है।….जन्म अक्षय है, मृत्यु अनादि है। हरियाली का विस्तृत भाल है, सूखा विकराल है। बाढ़ है, पानी है, कभी अतिवृष्टि कभी अनावृष्टि की कहानी है। बंजर पत्थर हैं, उपजाऊ मिट्टी है। जमे रंग, उड़े ढंग हैं। बाल्यावस्था है, यौवनावस्था है, जरावस्था है। हँसना है, रोना है, काटना है, बोना है। मिलन है, विरह है, प्रेम है, घृणा है। मिठास है, कटुता है, मित्रता है, शत्रुता है। आदमी है, आदमियों का मेला है, आदमी अकेला है। चर है, अचर है, चराचर है। अर्जुन का याचक स्वरूप है, योगेश्वर का विराट रूप है। चौरासी की परिक्रमा है, चौरासी का ही फेरा है। सागर यहाँ, गागर यहाँ। अर्पण यहाँ, तर्पण यहाँ। ब्रह्मांड यहीं  दिखता है, हर आँख में एक ‘संजय’ बसता है।

संजय दिव्यकर्ण है, विषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञानसंन्यासयोग, अठारह योग सुनता है, अठारह अक्षौहिणी की विनाशकथा सुनाता है। संजय दिव्यदृष्टा है, अच्युत के मुख से जन्म पाती सृष्टि को देखता है, अनिरुद्ध के मुख में समाती सृष्टि को दिखाता है। हरेक सुनता है, हरेक देखता है, कोई-कोई ही समझता है, नासमझी से महाभारत घटता है।

सुन सको, देख सको, समझ सको, बात कर सको अपने संजय से तो अवश्य करो। हो सकता है कि युधिष्ठिर न हुआ जा सके पर दुर्योधन होने से अवश्य बचा जा सकता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना-‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

 

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सुशील कुमार तिवारी

ज्ञान वर्द्धक रचना ,जीवन का बोध कराती है

वीनु जमुआर

दिव्यदृष्टा संजय द्वारा देखी, सुनी, गुनी गई…पत्ती से लेकर अक्षौहिणी तक की कथा..वाह!

लतिका

मार्मिक!??

ऋता सिंह

जीवन यी यही शायद सच्चाई है।

Vijaya

जो अपने भीतर के संजय को देख सुन ,समझ सके,बात कर सकें उसे तो संजय दृष्टी उपलब्ध होगी और वह बिल्कुल दुर्योधन होने से बचेगा संजय जी आपका विचार मंथन आपके भीतर के संजय से वार्तालाप करता नजर आता हैं
विजया टेकसिंगानी