डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘प्यार पर पहरा’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – प्यार पर पहरा ☆
ख़बर गर्म है अमरावती के एक स्कूल में प्राचार्य जी ने लड़कियों को शपथ दिलवायी कि वे प्रेम-विवाह नहीं करेंगीं। समझ में नहीं आया कि प्राचार्य जी को इश्क से इतनी चिढ़ क्यों है। लगता है उन्होंने इश्क में गच्चा खाया होगा, तभी उन्हें इश्क से एलर्जी हुई। कबीर कह गये, ‘ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय’ और बुल्ले शाह ने फरमाया, ‘बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, पर प्यार भरा दिल कभी ना तोड़ो’, लेकिन प्राचार्य जी प्यार भरा दिल तोड़ने के लिए हथौड़ा लेकर खड़े हैं।
‘जिगर’ ने लिखा, ‘ये इश्क नहीं आसाँ, बस इतना समझ लीजे, इक आग का दरया है और डूब के जाना है’, और ‘ग़ालिब’ ने लिखा, ‘इश्क पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब, जो लगाये न लगे और बुझाये न बने।’ प्राचार्य जी ने सही सोचा कि कोमलांगी कन्याओं को इस ख़तरनाक आग में कूदने से बचना चाहिए और अगर नासमझी में यह नामुराद आग लग जाए तो तुरंत अग्निशामक यंत्र की मदद से उसे बुझाने का इंतज़ाम करना चाहिए।
प्रेम-विवाह से बचने का अर्थ यह निकलता है कि शादी अपनी जाति और अपने धर्म में और माता-पिता की सहमति से की जाए, और दिल के दरवाज़े पर मज़बूत ताला लगा कर रखा जाए ताकि उसमें इश्क की ‘एंट्री’ ना होने पाए।
पारंपरिक परिवारों में लड़की के बड़े होने के साथ माता-पिता का चैन और नींद हराम होने लगते हैं। नाते-रिश्तेदारों की मदद से वर के लिए खोजी अभियान चलाना पड़ता है। ज़िन्दगी भर की बचत लड़की की शादी के लिए समर्पित हो जाती है। कहीं बात चली तो कन्या-दर्शन का कार्यक्रम होगा। खुद लड़का, उसके माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, फूफा-फूफी, मामा- मामी, दादा-दादी, सब अपने-अपने चश्मे से लड़की का चेहरा झाँकेंगे। कोई छूट जाएँ तो बाद में पधार सकते हैं। लड़की नुमाइश के लिए उपलब्ध रहेगी। वर-पक्ष का निर्णय मिलने तक कन्या-पक्ष की साँस चढ़ी रहती है, रक्तचाप बढ़ा रहता है।
लड़की पसन्द आ गयी तो फिर दहेज की बात। प्रस्ताव बड़ी सज्जनता के साथ आते हैं— ‘हमें तो कुछ नहीं चाहिए, लेकिन लड़के के ताऊजी चाहते हैं कि—‘, ‘हमें तो कुछ नहीं चाहिए, लेकिन लड़के के दादा की इच्छा है कि—‘। जब तक शादी नहीं हो जाती लड़की के माता-पिता की जान साँसत में रहती है। कई मामलों में शादी के बाद भी कन्या-पक्ष का जीना हराम रहता है। हमारे समाज में वर-पक्ष को कन्या-पक्ष से श्रेष्ठ समझा जाता है। इसीलिए मामा भांजे के पाँव छूता है और साले-साली के साथ मनचाही मसखरी की छूट रहती है। अपनी बहन और पत्नी की बहन में बहुत फर्क होता है। कहीं कहीं बूढ़े नाना को नाती के पाँव छूते देखा है।
कन्या के दर्शन के बाद वर-पक्ष अस्वीकृत कर दे तो लड़की अवसाद में घिर जाती है। दो चार बार ऐसा हुआ तो लड़की का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान दरकने लगता है। माता-पिता की परेशानी देख कर लड़की अपने को अपराधी महसूस करने लगती है।
अब लड़कियाँ फाइटर प्लेन चला रही हैं, हर पेशे में आगे बढ़ रही हैं, खुद का व्यवसाय चला रही हैं, सरकार में मंत्री बन रही हैं, लेकिन अब भी बहुत से लोगों की सोच पिछली सदी में अटकी है। लड़की प्रेम-विवाह करती है तो वह माता-पिता को ज़िम्मेदारी और परेशानी से मुक्त करती है और उनके कमाये धन को उनके बुढ़ापे के लिए छोड़ जाती है। पारंपरिक शादियाँ उन धनाढ्यों को ‘सूट’ करती हैं जिनके पास उड़ाने और दिखाने के लिए बहुत माल होता है। परसाई जी ने ‘सुशीला’ उस कन्या को कहा है जो भाग कर अपनी शादी कर लेती है और माता पिता का धन बचा लेती है। लेकिन बहुत से लोगों के मन में अभी वही सिर झुका कर बैठने वाली, मौन रहने वाली, पैर के अँगूठे से ज़मीन खुरचने वाली सुशील कन्या बैठी है।
इश्क की मुख़ालफ़त करने वालों को याद दिलाना ज़रूरी है कि कभी एक बादशाह (एडवर्ड अष्टम) ने अपनी प्रेमिका से शादी करने के लिए अपनी गद्दी छोड़ दी थी।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈