श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 117 ☆

☆ ‌दरिद्रता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

दरिद्रता शब्द के अनेक पर्याय वाची शब्द हैं जिनमें – दीन, अर्थहीन, अभाव ग्रस्त, गरीब, कंगाल, निर्धन आदि। जो दारिद्र्य के पर्याय माने जाते है।

प्राय: दरिद्रता का अर्थ निर्धनता से लगाया जाता है जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति तथा घर अन्न धन से खाली होता है विपन्नता की स्थिति में जीवन यापन करने वाले परिवार को ही दरिद्रता की श्रेणी में रखा जाता है ऐसे लोगों को प्राय: समाज के लोग हेय दृष्टि से देखते है,  यदि हमें अन्न तथा धन के महत्व को समझना है तो हमें पौराणिक कथाओं के तथ्य  को शबरी, सुदामा, महर्षि कणाद्, कबीर रविदास लालबहादुर शास्त्री के तथा द्रौपदी के अक्षयपात्र कथा और उनके जीवन दर्शन को समझना श्रवण करना तथा उनके जीवन शैली का अध्ययन करना होगा। दरिद्रता के अभिशाप से अभिशप्त प्राणी का कोई मान सम्मान नहीं, वह जीवन का प्रत्येक दिन त्रासद परिस्थितियों में बिताने के लिए बाध्य होता है।  ऐसे परिवार में दुख, हताशा, निराशा डेरा डाल देते हैं उससे खुशियों के पल रूठ जाते हैं। दुख और भूख की पीड़ा से बिलबिलाता परिवार  दया तथा करूणा का पात्र नजर आता है। कहा भी गया है कि-

विभुक्षितम् किं न करोति पापम्।

अर्थात् दरिद्रता की कोख से जन्मी भूख की पीड़ा से  पीड़ित मानव कौन जघन्यतम नहीं करने के लिए विवश होता।

लेकिन वहीं परिवार जब श्रद्धा  आत्मविश्वास और भरोसे के भावों को धारण कर लेता है और भक्ति तथा समर्पण उतर आता है  तो भगवान को भी मजबूर कर देता है  झुकने के लिए और भगवत पद धारण कर लेता है कम से कम सुदामा और कृष्ण का प्रसंग त़ो यही कहता है।

देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करिके करुणानिधि रोए |

पानी परात को हाथ छुयो नहि नैनन के जल सो पग धोए।।

जो भगवान  भक्ति की पराकाष्ठा की परीक्षा लेने हेतु वामन की पीठ नाप लेते हैं वहीं भगवान दीन हीन सुदामा के पैर आंसुओं से धोते हैं।

भले ही इस कथा के तथ्य अतिशयोक्ति  के जान पड़ते हों, लेकिन भक्त के पांव पर गिरे मात्र एक बूंद प्रेमाश्रु  भक्त और भगवान के संबंधों की व्याख्या के लिए पर्याप्त है। यहां तुलना मात्रा से नहीं भाव की प्रबलता से की जानी चाहिए। पौराणिक मान्यता के अनुसार लक्ष्मी और दरिद्रा दोनों सगी बहन है दरिद्रता के मूल में अकर्मण्यता प्रमाद तथा आलस्य समाहित है जब कि संपन्नता के मूल में कठोर परिश्रम लगन कर्मनिष्ठा  समाहित है। कर्मनिष्ठ अपने श्रम की बदौलत अपने भाग्य की पटकथा लिखता है। दरिद्रता इंसान को आत्मसंतोषी बना देती है। जब की धन की भूख इंसान  में लोभ जगाती हैं।इस लिए कुछ मायनों में दरिद्रता  व्यक्ति के आत्मसंम्मान को मार देती है, उसमें स्वाभिमान  के भाव को जगाती भी है। इसी लिए सुदामा ने भीख मांगकर खाना स्वीकार किया लेकिन भगवान से उन्हें कुछ भी मांगना स्वीकार्य नहीं था।

और तो और संत कबीर दस जी  धनवान और निर्धन की अध्यात्मिक परिभाषा लिखते हुए कहते हैं कि

 कबीरा सब जग निर्धना, धनवंता न कोय ।

धनवंता सो जानिए, जिस पर रामनाम धन होय।।

इसीलिए रहीम दास जी ने लिखा

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।

जो रहीम दिनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।। 

अर्थात् दरिद्र की सेवा मानव को दीन बंधु दीनदयाल दीनानाथ जैसी उपाधियों से विभूषित कर देती है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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