डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘फाँस’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 91 ☆

☆ लघुकथा – फाँस ☆ 

अर्चना बालकनी में खड़ी बिजली के तार पर बैठी गौरैया को देख रही थी जिसने बच्चों के उड़ जाने के बाद अभी – अभी घोंसला छोड़ दिया था। घोंसला सूना पड़ा था। कुछ दिन पहले ही चूँ –चूँ  की आवाजों से लॉन गूँजा करता था।  जैसे बच्चों के रहने से घर में रौनक बनी रहती है। घोंसले का सूनापन घर के सन्नाटे को और बढ़ा रहा था। फ्लैशबैक की तरह पति की  एक- एक बात उसके दिमाग में गूँज रही थी –  ‘टू बेडरूम हॉल किचन के फ्लैट से क्या होगा ? कम से कम थ्री बेडरूम हॉल किचन का फ्लैट होना चाहिए। एक  बेटे – बहू का, दूसरा बेटी- दामाद या कोई मेहमान आए तो उसके लिए और तीसरा बेडरूम हमारा। ऐश करेंगे यार, पैसे कमाए किस दिन के लिए जाते हैं।‘  बड़े चाव से खरीदे तीन बेडरूम के फ्लैट में आज सन्नाटा पसरा था। बेटी की शादी हो गई,  कभी – कभार आ जाती हैं सुख – दुख में। बेटे को एम.एस करने विदेश भेजा था,  वह वहीं रम गया।  तीसरे में अकेली रह गई वह। क्यों ???  शादी के बीस साल बाद उसके पतिदेव को समझ में आया कि वे दोनों अब साथ नहीं रह सकते। उसने पति के फोन पर कई बार उसके ऑफिस की एक महिला की चैट पढ़ी  थी। इस पर उसने सवाल भी किए थे पर पति ने उसे तो यही जताया कि ‘तुम हमें समझ ही नहीं सकीं। गल्ती तुम्हारी ही है जो मुझे बांधकर ना रख सकीं। यह तो औरतों का काम होता है पति और बच्चों को संभालना। मेरा क्या ? ‘जो भी राह में मिला, हम उसी के हो लिए’ गीत गुनगुना दिया उसने। दो बेडरूम  खाली रह सकते हैं यह तो उसे मालूम था लेकिन तीसरा ?

 फाँस बहुत गहरी चुभी थी। समझ ही नहीं पाई कि कहाँ,  क्या गलत हो गया? खुद को  कितना समझाती पर चुभन कम नहीं होती। फाँस कुरेद रही थी  उसे भीतर ही भीतर – ‘ इतने वर्षों का साथ, पर एक पल नहीं लगा घरौंदा बिखरने में ? पति और बच्चों के इर्द- गिर्द ही तो जीवन था उसका। मकान को घर बनाने में उसने जीवन खपा दिया। किसी बात का कोई मोल नहीं ? ‘ आँसू थम नहीं रहे थे, दिल बैचैन जोर से धड़कने लगा,  घबराकर फिर से बालकनी में जाकर घोंसले को देखने लगी। गौरैया आकाश में दूर उड़ गई। अर्चना हसरत भरी निगाहों से गौरैया को उड़ते देख रही थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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