डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दोस्ती और क़ामयाबी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 129 ☆

☆ दोस्ती और क़ामयाबी

‘क़ामयाब होने के लिए अच्छे मित्रों की आवश्यकता होती है और अधिक क़ामयाब होने के लिए शत्रुओं की’ चाणक्य की इस उक्ति में विरोधाभास निहित है। अच्छे दोस्तों पर आप स्वयं से अधिक विश्वास कर सकते हैं। वे विषम परिस्थितियों में आपकी अनुपस्थिति में भी आपके पक्षधर बन कर खड़े रहते हैं और आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं। सो! क़ामयाब होने के लिए उनकी दरक़ार है। परंतु यदि आप अधिक क़ामयाब होना चाहते हैं, तो आपको शत्रुओं की आवश्यकता होगी, क्योंकि वे आपके शुभचिंतक होते हैं और आपकी ग़लतियों व दोषों से आपको अवगत कराते हैं; दोष-दर्शन कराने में वे अपना बहुमूल्य समय नष्ट करते हैं। इसलिए आप उनके योगदान को कैसे नकार सकते हैं। कबीरदास जी ने भी ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छुआए/ बिन साबुन, पानी बिनु, निर्मल करै सुभाय’ के माध्यम से निंदक को अपने आंगन अथवा निकट रखने का संदेश दिया है, क्योंकि वह नि:स्वार्थ भाव से आपका स्वयं से साक्षात्कार कराता है; आत्मावलोकन करने को विवश करता है। वास्तव में अधिक शत्रुओं का होना क़ामयाबी की सीढ़ी है। दूसरी ओर यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि जिसने जीवन में सबसे अधिक समझौते किए होते हैं; उसके जीवन में कम से कम शत्रु होंगे। अक्सर झगड़े तो तुरंत प्रतिक्रिया देने के कारण होते हैं। इसलिए कहा जाता है कि जीवन में मतभेद भले ही हों; मनभेद नहीं, क्योंकि मनभेद होने से समझौते के अवसर समाप्त हो जाते हैं। इसलिए संवाद करें; विवाद नहीं, क्योंकि विवाद बेसिर-पैर का होता है। उसका संबंध मस्तिष्क से होता है और उसका कोई अंत नहीं होता। संवाद से सबसे बड़ी समस्या का समाधान भी निकल आता है और उसे संबंधों की जीवन-रेखा कहा जाता है।

सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अपनी भावनाएं दूसरों से सांझा करना चाहता है, क्योंकि वह विचार-विनिमय में विश्वास रखता है। परंतु आधुनिक युग में परिस्थितियां पूर्णत: विपरीत हैं। संयुक्त परिवार व्यवस्था के स्थान पर एकल परिवार व्यवस्था काबिज़ है और पति- पत्नी व बच्चे सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। संबंध-सरोकार समाप्त होने के कारण वे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। सिंगल- पेरेन्ट का प्रचलन भी बढ़ता जा रहा है। दोनों के अहं टकराते हैं और झुकने को कोई भी तैयार नहीं होता। सो! ज़िंदगी ठहर जाती है और नरक से भी बदतर हो जाती है। सभी सुंदर वस्तुएं हृदय से आती है और बुरी वस्तुएं मस्तिष्क से आती हैं और आप पर आधिपत्य स्थापित करती हैं। इसलिए मस्तिष्क को हृदय पर हावी न होने की सीख दी गई है। इसी संदर्भ में मानव को विनम्रता की सीख दी गयी है। ‘अदब सीखना है, तो कलम से सीखो; जब भी चलती है, झुक कर चलती है।’ इसलिए महापुरुष सदैव विनम्र होते हैं और स्नेह व सौहार्द के पक्षधर होते हैं।

भरोसा हो तो चुप्पी भी समझ में आती है अन्यथा शब्दों के ग़लत व अनेक अर्थ भी निकलते हैं। इसलिए मौन को संजीवनी व नवनिधि कहा गया है। इससे सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है। मानव को रिश्तों की अहमियत स्वीकारते हुए सबको अपना हितैषी मानना चाहिए, क्योंकि वे रिश्ते बहुत प्यारे होते हैं, जिनमें ‘न हक़, न शक़, न अपना-पराया/ दूर-पास, जात-जज़बात हो/ सिर्फ़ अपनेपन का एहसास ही एहसास हो।’ वैसे जब तक मानव को अपनी कमज़ोरी का पता नहीं लग जाता; तब तक उसे अपनी सबसे बड़ी ताकत के बारे में भी पता नहीं चलता। यहां चाणक्य की युक्ति अत्यंत कारग़र सिद्ध होती है कि अधिक क़ामयाब होने के लिए शत्रुओं की आवश्यकता होती है। वास्तव में वे आपके अंतर्मन में संचित शक्तियों का आभास से दिलाते हैं और आप दृढ़-प्रतिज्ञ होकर पूरे साहस से मैदान-ए-जंग में कूद पड़ते हैं।

मानव को कभी भी अपने हुनर पर अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि पत्थर भी जब पानी में गिरता है, तो अपने ही बोझ से डूब जाता है। ‘शब्दों में भी तापमान होता है; जहां वे सुक़ून देते हैं; जला भी डालते हैं।’ सो! यदि संबंध थोड़े समय के लिए रखने हैं, तो मीठे बन कर रहिए; लंबे समय तक निभाने हैं, तो स्पष्टवादी बनिए। वैसे संबंध तोड़ने तो नहीं चाहिए, लेकिन जहां सम्मान न हो; वहां जोड़ने भी नहीं चाहिए। इसलिए ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि अक्सर वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। दर्द कितना खुशनसीब है, जिसे पाकर लोग अपनों को याद करते हैं और दौलत कितनी बदनसीब है, जिसे पाकर लोग अपनों को भूल जाते हैं। वास्तव में ‘ओस की बूंद-सा है/ ज़िंदगी का सफ़र/ कभी फूल में, कभी धूल में।’ परंतु ‘उम्र थका नहीं सकती/ ठोकरें उसे गिरा नहीं सकतीं/ अगर जीतने की ज़िद्द हो/ तो परिस्थितियां उसे हरा नहीं सकती’, क्योंकि शत्रु बाहर नहीं; हमारे भीतर हैं। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह व घृणा को बाहर निकाल फेंकना चाहिए और शांत भाव से जीना चाहिए। यह प्रामाणिक सत्य है कि जो व्यक्ति इनके अंकुश से बच निकलता है; अहं उसके निकट भी नहीं आ सकता। ‘अहंकार में तीनों गए/ धन, वैभव, वंश। यकीन न आए तो देख लो/ रावण, कौरव, कंस।’ जो दूसरों की सहायता करते हैं; उनकी गति जटायु और जो ज़ुल्म होते देखकर आंखें मूंद लेते हैं; उनकी गति भीष्म जैसी होती है।

‘उदाहरण देना बहुत आसान है और उसका अनुकरण करना बहुत कठिन है’ मदर टेरेसा की यह उक्ति बहुत सार्थक है। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् दूसरों को उपदेश देना बहुत सरल है, परंतु उसे धारण करना अत्यंत दुष्कर। मुश्किलें जब भी जवाब देती हैं, हमारा धैर्य भी जवाब दे जाता है। ईश्वर सिर्फ़ मिलाने का काम करता है; संबंधों में दूरियां-नज़दीकियां बढ़ाने का काम तो मनुष्य करता है। जीवन में समस्याएं दो कारणों से आती हैं। प्रथम हम बिना सोचे-समझे कार्य करते हैं, दूसरे जब हम केवल सोचते हैं और कर्म नहीं करते। यह दोनों स्थितियां मानव के लिए घातक हैं। इसलिए ‘कभी फ़ुरसत में अपनी कमियों पर ग़ौर कीजिए/ दूसरों को आईना दिखाने की आदत छूट जाएगी।’ जीवन बहती नदी है। अत: हर परिस्थिति में आगे बढ़ें, क्योंकि जहां कोशिशों का अंत होता है; वहां नसीबोंं को भी झुकना पड़ता है। क़ामयाब होने के लिए रिश्तों का निर्वहन ज़रूरी है, क्योंकि रिश्ते अंदरूनी एहसास व आत्मीय अनुभूति के दम पर टिकते हैं। जहां गहरी आत्मीयता नहीं, वह रिश्ता रिश्ता नहीं; मात्र दिखावा हो सकता है। इसलिए कहा जाता है कि रिश्ते खून से नहीं; परिवार से नहीं; मित्रता व व्यवहार से नहीं; सिर्फ़ आत्मीय एहसास से वहन किए जा सकते हैं। यदि परिवार में विश्वास है, तो चिंताओं का अंत हो जाता है; अपने-पराए का भेद समाप्त हो जाता है। सो! ज़िंदगी में अच्छे लोगों की तलाश मत करो; ख़ुद अच्छे हो जाओ। शायद! किसी दूसरे की तलाश पूरी हो जाए। इंसान की पहचान तो चेहरे से होती है, परंतु संपूर्ण पहचान विचार व कर्मों से होती है। अतः में मैं यह कहना चाहूंगी कि दुनिया वह किताब है, जो कभी पढ़ी नहीं जा सकती, लेकिन ज़माना वह अध्याय है, जो सब कुछ सिखा देता है। ज़िंदगी जहां इम्तिहान लेती है, वहीं जीने की कला भी सिखा देती है। वेद पढ़ना आसान हो सकता है, परंतु जिस दिन आपको किसी की वेदना को पढ़ना आ गया; आप प्रभु को पा जाते हैं। वैसे भौतिक सुख- सम्पदा पाना बेमानी है। मानव की असली कामयाबी प्रभु का सान्निध्य प्राप्त करने में है, जिसके द्वारा मानव को कैवल्य अर्थात् अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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