डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘छोटू भाई का आखिरी इन्तज़ाम ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – छोटू भाई का आखिरी इन्तज़ाम ☆
कुछ दिनों से छोटू भाई चिन्तित नज़र आते हैं। एक दिन आकर बैठ गये। कुछ इधर उधर की करने के बाद बोले, ‘देख भैया, अब अपन उमर के पचास पार कर गये। अब जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं। कौन सा रोग चिपक जाये पता नहीं। वैसे भी सब तरफ मरने की सुविधा उपलब्ध है। मोटरें, मोटरसाइकिलें सड़कों पर इसीलिए दौड़ती फिर रही हैं। जो चाहे इस सुविधा का लाभ उठाकर स्वर्ग पहुँच सकता है। इस सेवा की कोई फीस नहीं लगती।
‘अब चूँकि जिन्दगी अनिश्चित हो गयी है इसलिए हमने सोचा है कि अपनी पसन्द के हिसाब से अपनी मौत के बाद का इन्तजाम कर लिया जाए। जब जिन्दगी के हर कदम की प्लानिंग की तो इसे ही क्यों छोड़ दिया जाए। अब दिखावे और प्रचार का जमाना है। जो दिखावा नहीं करता उसे कोई नहीं पूछता। इसलिए मौत के बाद का काम भी स्टैंडर्ड और सलीके से होना चाहिए ताकि लोग पाँच दस साल याद करें कि मौत हो तो छोटू भाई की जैसी हो।’
मैंने कहा, ‘बात अक्ल की है। क्या इरादा है?’
छोटू भाई बोले, ‘ऐसा है कि तुम मुझसे तीन-चार साल छोटे हो इसलिए माना जा सकता है कि मेरे रुखसत होने के तीन चार साल बाद तुम्हारा नंबर लगेगा। मेरा इरादा है कि बीस पच्चीस हजार रुपये तुम्हारे पास छोड़ दूँ ताकि तुम स्टैंडर्ड से हमारा सब काम करा दो। खर्च करने के बाद कुछ बच जाए तो अपनी भाभी को लौटा देना। मुझे भरोसा है तुम बेईमानी नहीं करोगे।’
मैंने पूछा, ‘क्या चाहते हो?’
छोटू भाई बोले, ‘पहली बात तो यह है कि लोग उल्टे सीधे कपड़े पहन कर शवयात्रा में पहुँच जाते हैं। गन्दा कुर्ता-पायजामा पहन लिया और कंधे पर तौलिया डालकर चल पड़े। इससे शवयात्रा का स्टैंडर्ड गिरता है और मुर्दे की इज्जत दो कौड़ी की हो जाती है। मैंने अभी से अपने दोस्तों से कहना शुरू कर दिया है कि मेरी शवयात्रा में आयें तो ढंग के कपड़े पहन कर आयें, नहीं तो अपने घर में ही विराजें। मैंने यह भी बता दिया है कि जो मित्र सूट पहनकर आएँगे उनके सूट की धुलाई का पैसा तुमसे मिल जाएगा।
‘दूसरी बात यह कि शवयात्रा में कारें ज्यादा से ज्यादा हों। मैं कारवाले दोस्तों-रिश्तेदारों को बता रहा हूँ कि कार से ही पहुँचें और चाहें तो पेट्रोल का पैसा तुमसे ले लें। जरूरी समझो तो चार छः किराये की कारें बुलवा लेना। हाल में मेरे पड़ोस में हिकमत राय मरे थे तो उन की शवयात्रा में एक सौ दस कारें मैंने खुद गिनी थीं। क्या ठप्पेदार शवयात्रा थी! श्मशान में लोग मुर्दे को भूल कारों के मॉडल देखते रह गये। वह शवयात्रा अब तक आँखों में बसी है।
‘तीसरी बात यह कि श्मशान में कम से कम तीन चार वीआईपी जरूर पहुंँचें। मैं इसके लिए लोकल वीआईपी लोगों से सहमति और वादा ले रहा हूंँ। साधारण जनता कितनी भी पहुँच जाए लेकिन बिना वीआईपी के किसी भी मजमे में रौनक नहीं आती। मीडिया वालों से भी बात कर रहा हूँ। उन्हें बता रहा हूँ कि एकाध दिन बाद तुम उन्हें बुलाकर चाय पानी करा दोगे। ध्यान रखना कि श्मशान में सभी वीआईपी मेरी तारीफ में थोड़ा-थोड़ा बोलें।
‘तुम्हारे पास अपना फोटो छोड़ जाऊँगा। चार छः दोस्तों के नाम से चार छः शोक- सन्देश फोटो के साथ अखबारों में छपवा देना। टीवी में भी ढंग से आ जाए। गुमनामी में मरे तो क्या मरे। जितना बन सके उतना प्रचार कर देना। एक दो दिन बाद दोस्तों और मीडिया वालों को बुलाकर किसी सार्वजनिक स्थान में शोकसभा कर लेना। इसके लिए एक बड़ा फोटो बनवा लिया है। सबको बता देना कि शोकसभा के बाद चाय- पकौड़े का इन्तजाम रहेगा ताकि उपस्थिति अच्छी हो जाए।’
छोटू भाई थोड़ा साँस लेकर बोले, ‘ये सब बुनियादी बातें हैं। इनमें तुम और जो जोड़ सको, जोड़ लेना। पाँच दस हजार तुम्हारे भी लग जाएँ तो लगा देना। आखिर दोस्ती किस दिन के लिए होती है। लेकिन मेरी आखिरी यात्रा जलवेदार होना चाहिए। बजट में आ जाए तो एक दो अच्छे से बैंड बुलवा सकते हो। लेकिन शानदार हों, जैसे आर्मी के होते हैं। कोई ढपर ढपर करने वाला मत बुलवा लेना। बढ़िया बैंड होगा तो हम भी रास्ते भर म्यूजिक सुनते चले जाएँगे। तुम जानते हो मैं संगीत का शौकीन हूँ।
‘विदेशों में किराये पर रोने वाले मिलते हैं जो काले कपड़े पहन कर पूरी ईमानदारी और जोश से रोते हैं। यहाँ भी यह सिस्टम शुरू हो जाए तो शवयात्रा में चार चाँद लग जाएँ।’
मैंने कहा, ‘छोटू भाई, आपने मेरे ऊपर बड़ी गंभीर जिम्मेदारी डाल दी, लेकिन जैसा आपने खुद कहा जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं है। कहीं मैं आपसे पहले दुनिया से रुखसत हो गया तो आपके दिये पैसों का क्या होगा?’
छोटू भाई मेरा कंधा थपक कर बोले, ‘उसकी चिन्ता तुम मत करो। तुम मेरे पैसे बहू के पास रख देना। तुम पहले चल बसे तो मैं उनसे ले लूँगा। वे धरम-करम वाली हैं। मेरा पैसा कहीं नहीं जाएगा।’
मुझसे पूरे सहयोग का आश्वासन पाकर छोटू भाई निश्चिंत उठ गये।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈