श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  सुख क्या है?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 153 ☆

? आलेख  – सुख क्या है? ?

हम सब सदैव सुख प्राप्ति का प्रयत्न करते रहते हैं। सभी चाहते हैं कि उन्हें सदा सुख ही मिले, कभी दु:खों का सामना न करना पड़े,हमारी समस्त अभिलाषायें पूर्ण होती रहें, परन्तु ऐसा होता नहीं। अपने आप को पूर्णत: सुखी कदाचित् ही कोई अनुभव करता हो।

जिनके पास पर्याप्त धन-साधन, श्रेय-सम्मान सब कुछ है, वे भी अपने दु:खों का रोना रोते देखे जाते हैं। आखिर ऐसा क्यों है ? क्या कारण है कि मनुष्य चाहता तो सुख है; किन्तु मिलता उसे दु:ख है। सुख-संतोष के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हुए हमें अनेकानेक दु:खो एवं अभावों का सामना करना पड़ता है। आज की वैज्ञानिक समुन्नति से, पहले की अपेक्षा कई गुना सुख के साधनों में बढ़ोत्तरी होने के उपरान्त भी स्थायी सुख क्यों नहीं मिल सका ? जहाँ साधन विकसित हुए वहीं उनसे ज्यादा जटिल समस्याओं का प्रादुर्भाव भी हुआ। मनुष्य शान्ति-संतोष की कमी अनुभव करते हुए चिन्ताग्रस्त एवं दु:खी ही बना रहा। यही कारण है कि मानव जीवन में प्रसन्नता का सतत अभाव होता जा रहा है।

इन समस्त दु:खों एवं अभावों से मनुष्य किस प्रकार मुक्ति पा सकता है, प्राचीन ऋषियों-मनीषियों एवं भारतीय तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इसके लिए कई प्रकार के मार्गों का कथन किया है, जो प्रत्यक्ष रूप से भले ही प्रतिकूल व पृथक् प्रतीत होते हों; परन्तु सबका- अपना-अपना सच्चा दृष्टिकोण है। एक मार्ग वह है जो आत्मस्वरूप के ज्ञान के साथ-साथ भौतिक जगत् के समस्त पदार्थों के प्रति आत्मबुद्धि का भाव रखते हुए पारलौकिक साधनों का उपदेश देता है। दूसरा मार्ग वह है जो जीवमात्र को ईश्वर का अंश बतलाकर, जीवन में सेवा व भक्तिभाव के समावेश से लाभान्वित होकर आत्मलाभ की बात बतलाता है। तीसरा मार्ग वह है जो सांसारिक पदार्थों एवं लौकिक घटनाक्रमों के प्रति सात्विकता पूर्ण दृष्टि रखते हुए, उनके प्रति असक्ति न होने को श्रेयस्कर बताता है। अनेक तरह के मतानुयायियों ने अपने अपने विचार से ईश्वर का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का बतलाया है, जिसके कारण मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है।

जीवन जीना एक कला है। जी हां, जीवन का सही अर्थ समझना, उसको सही अर्थों में जीना, जीवन में सार्थक काम करना ही जीवन जीने की कला है। जीने के लिए तो कीट पतंगे, पशु-पक्षी भी जीवन जीते हैं, किंतु क्या उनका जीवन सार्थक होता है ? मनुष्य के जीवन में और अन्य प्राणियों के जीवन में यही अंतर हैं। इसलिए कहा गया है कि जीवन जीना एक कला है। हम अपने जीवन को कैसे सजाते-संवारते हैं, कैसे अपने उद्देश्य और लक्ष्य निर्धारित करते हैं, हमारे काम करने का तरीका क्या है, हमारी सोच कैसी है, समय के प्रति हम कितने सचेत हैं, ये सभी बातें जीवन जीने की कला के अंग हैं। ये सभी बातें हमारे जीवन को कलात्मक रूप देकर उसे संवार सकती हैं और उन पर ध्यान न देने से वे उसे बिगाड़ भी सकती हैं।

जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण यदि स्पष्ट नहीं है तो हमने जीवन को जिया ही नहीं। आम व्यक्ति जीवन को सुख से जीना ही ‘जीवन जीना’ मानता है। अच्छी पढ़ाई के अवसर मिले, अच्छी नौकरी मिले, सुंदर पत्नी हो, रहने को अच्छा मकान हो, सुख-सुविधाएं हों, बस और क्या चाहिए जीवन में ? पर होता यह है कि सबको सब कुछ नहीं मिलता। चाहने से कभी कुछ नहीं मिलता। कुछ पाने के लिए मेहनत और संघर्ष करना जरूरी होता हैं और लोग वही नहीं करना चाहते। बस पाना चाहते है-किसी शॉर्टकट से और जब नहीं मिलता तो जीवन को कोसते हैं-अरे क्या जिंदगीं हैं ? बस किसी तरह जी रहे हैं-जो पल गुजर जाए वही अच्छी हैं। ‘सच मानिये आम आदमी आपसे यही कहेगा, क्योंकि उसने जीवन का अर्थ समझा ही नहीं। बड़ी मुश्किल से ही कोई मिलेगा, जो यह कहे कि ‘मैं बड़े मजे से हूँ। ईश्वर की कृपा है। जीवन में जो चाहता हूं-अपनी मेहनत से पा लेता हूँ। संघर्षों से तो मैं घबराता ही नहीं हूँ।’ और ऐसे ही व्यक्ति जीवन में सफल होते हैं। किसी ने ठीक कहा है, ‘संघर्षशील व्यक्ति के लिए जीवन एक कभी न समाप्त होने वाले समारोह या उत्सव के समान है।’

मनुष्य जीवन कर्म करने और मोक्ष की तरफ कदम बढ़ाने के लिए है। कदम उत्साहवर्धक होने चाहिए, अपने जीवन के प्रति रुचि होनी चाहिए। जीवन में कष्ट किसे नहीं भोगना पड़ता। आनंद तो इन कष्टों पर विजय पाने में हैं। कोई कष्ट स्थायी नहीं होता। वह केवल डराता है। हमारी सहनशीलता और धैर्य की परीक्षा लेता है। अच्छा जीवन, ज्ञान और भावनाओं तथा बुद्धि और सुख दोनों का सम्मिश्रण होता है। इसका अर्थ है कि जहां हमें अच्छा ज्ञान अर्जित करना चाहिए, वहीं हमारे विचार और भावनाएं भी शुद्ध और निर्मल हों। तब हमारी बुद्धि भी हमारा साथ देगी और हमें सच्चा सुख मिलेगा।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments