श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 123 ☆

☆ ‌कविता – राग बासंती ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(जहां एक तरफ प्रकृति का सौंदर्य बोध कराती है तो वहीं पर प्रेम व विरह के भावों से बखूबी परिचय भी कराती है। इस रचना में जहां ‌ऋतुराज बसंत को नायक के रूप में चित्रांकित किया गया है वहीं धरती के सौंदर्य को दुल्हन के रूप में वर्णित किया गया है। कहीं संयोग प्रभावी है तो कहीं विरह प्रधान है। प्रकृति का रंग निखरता बिखरता दिखाई देता है, जो यह बताता है कि किस प्रकार मानव जीवन प्रकृति से प्रभावित होता है।)

पतझड़ के होते ही, बसनों का अंत करके।

देखो बसंत ऋतुराज, आज़ आया है।

नवपल्लव वृक्षों में, फूलों की क्यारी में।

अभिनव सुगंध और, रंग भर लाया है।।१।।

 

मंद मंद पुरुआ चले, प्रियतम संग सांझ ढले।

बांसुरी की तान सुनि, गोरिया का मन डोले।

नीली पीली चूनर ओढ़े, दूल्हन सी धरा लगे।

भावों का ज्वार लिए, मानो इस धरा पर।

धरती रिझाने, ऋतु राज उतर आया है।।०२।।    

।।पतझड़ के होते…।।

 

कोई डूबा हास‌ में, कोई परिहास में

कोई रमा भोग में, कोई विलास में।

गोद लिए छौने को, तडपत बिछौने पर।

बिरहिनि का मन तरसे, नैनों से जल बरसे।

राह तकत कटत रात, कंत नाही बुझत बात।

पिउ की पढत पाती पुरान, छलकत प्रेम गागर सा।

बिरह की हिलोर उठत, मन बिकलाया है।

भावों का ज्वार लिए, मानों धरा पर।

धरती रिझाने कामदेव उतर आया है।।०३।।

।। पतझड़ के होते ही…।।

 

नीले नीले अंबर में, डत झुंड बगुलों के।

कोयल की कूक सुनि, नृत्य देख मैना के।

बालियों से लदे खेत, झूमते हवाओं से।

छेड़-छाड़ बिरह प्यार, खुशियों के ले बहार।

फगुआ की स्वर लहरी, ढोलक की थाप सुनि।

मन हरसाया है, पतझड़ के होते ही।।०४।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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