श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 125 ☆
☆ कविता – सब सूखा सूखा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
(आज मानव की स्वार्थपरता के चलते पर्यावरण असंतुलन अपने घातक स्तर को पार कर चुका है, परिणाम सूखा, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा जिसका जनक मानव स्वयं है, धरती आग का गोला बन धधकती दीख रही है, जिसके चलते पर्यावरणीय विद्रूपता स्पष्ट रूप से दीख रही है जिसका संदेश रचना कार अपने रचना के माध्यम से देना चाहता है।)
धरती सूखी अंबर सूखा, सूख गये सब स्रोत सजल।
आते जाते रहते बादल, देते नहीं मेघ अब जल।
सावन सूखा सूखी हरियाली, बदला बदला मौसम निर्जल।
बंजर बांझ हुइ भूमी, सूखे पेड़ नहीं है फल ।
आग बरसती अंबर से, धधक रही बन दावानल।।
उड़ते गिरते पंख पखेरू, और तड़पती मछली।
पानी बिन सावन उदास है, रोती तीज़ अरू कजली।
हरियाली अब खत्म हुई है, मुरझाए सब फूल।
बगिया में भी उग आए, अब कीकड़ और बबूल।।
ताल तलैए सारे सूखे, निर्झरिणी का सूखा स्रोत।
मरते जीव जगत के प्राणी, बिनु पानी के प्यासे लोग।
पेड़ कटे सब दरवाजे के, उजड़ा है चिड़ियों का नीड़।
रिस्तों में ममता है सूखी, कौन सुने रिस्तों की पीड़।
आंखों के आंसू बनकर पीड़ा, ढुरके बन कर मोती।
अब भी चेत अरे! ओ मानव, कर ले नेकी की खेती।
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266